सोमवार, 23 दिसंबर 2019

पिंकू के नाम पत्र

प्रिय मित्र पिंकू,


मैं यहाँ कुशलता से हूँ और ईश्वर से तुम्हारे कुशलता की कामना सदा करता हूँ| 

तुम्हारा जन्मदिन आ रहा है तो सोचा इस बार तुम्हें पत्र लिखूँ और जन्मदिन की शुभकामना में कार्ड भेजूँ| जब हम बच्चे थे तब कितने उत्साह से एक दूसरे के लिए जन्मदिन, दीवाली और नववर्ष आदि के लिए कार्ड लिया करते थे| अब तो फ़ोन से और व्हाट्सएप पर एक दो लाइन का सन्देश भेज कर ही औपचारिकता पूरी हो जाती  है| पर इस तरह के सन्देश में अपनेपन का वह भाव नहीं होता जो अपने हाथों से कार्ड देने और उसके बाद साथ बैठकर घर में खीर-पूड़ी खाने पर हुआ करता था| 


पत्र के शुरआत में सोचने लगा लगा था - तुम्हें “पिंकू” ही लिखूँ या अब “प्रवीण” लिखना चाहिए| अब हम बच्चे नहीं रहे बल्कि ४० के पार हो गए हैं| तुम एक अधिकारी हो और मैं भी सात समुन्दर पार एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता हूँ| तभी मन में ये विचार आया कि ये पत्र “प्रवीण श्रीवास्तव, राजस्व अधिकारी छत्तीसगढ़ शासन” के लिए नहीं है, ये तो मेरे बचपन के साथी "पिंकू" के लिए है| इसी उधेड़बुन के बीच हुए ये अहसास हुआ कि जीवन के आपाधापी में, बचपन जाने कब पीछे छूट गया और पता भी नहीं चला| लगता है जैसे कुछ साल पहले की ही बात हो जब हम लोग साथ पढ़ते-खेलते थे और सायकल से अपने शहर के गलियों में घूमते थे| वैसे तो हम छह साथियों का दल था लेकिन तुम और में कक्षा ६वीं से लेकर एम. एससी. करने तक सबसे लम्बे समय तक साथ पढ़े| जाने अनजाने कितनी नादानियाँ हुईं और कितने बड़े काम किये| तुम मेरे जीवन में बचपन की मीठी यादों के साथ कुछ व्यक्तिगत विषयों के अभिन्न हिस्सा हो इसलिए तुम मुझे सभी मित्रों में सबसे अधिक अपने लगते हो| 


तुम्हे पत्र लिखने का विचार सब पहले तब आया जब में पिछले महीने आपने काम के सिलसिले में लन्दन गया था| हमेशा की तरह इस बार भी मैंने एयरपोर्ट से गाड़ी बुक किया था और जो कार मिली वो थी मर्सिडीज बेंज की सी-क्लास - एकदम नई और चमचमाती| पता है, मुझे तो उस कार को चालू करना भी नहीं आया| तब एक पल में बचपन अब तक के समय खों के सामने आ गया और लगा कि कहाँ से कहाँ आ गया हूँ| पर दुनिया में हर चीज की एक कीमत चुकानी पड़ती हैं और मेरे लिए इस कामयाबी की कीमत है अपनों से दूरी| माँ-बाप, भाई, तुम सभी मित्र और गाँव-घर से दूर हो कर हासिल किये इस मुकाम के चमक-दमक के पीछे सूनेपन का भाव हमेशा एक टीस बनकर चुभती है| 


पर जैसे अनन्त समय तक खुश रहना सम्भव नहीं उसी तरह से बहुत लम्बे समय तक दुःखी रहना भी संभव नहीं होता| नींद और भूख दो ऐसी चीज है जो कितने भी सुख या दुःख को भेद कर आ ही जाती है| और ये दोनों ही शायद मनुष्य को जीवट बनाते हैं और इसी जीवट पने से आगे बढ़ने का हौसला मिलता है| यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के लिए अपने शहर से निकल कर आज अमेरिका से होते हुए यूरोप में रहने तक जिन्दगी बहुत आगे निकल गयी है| पलट कर समीक्षा करने से बहुत बार लगता है कि काश मैंने ये किया होता या वो किया होता| पर बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता और हमें अपने चुनावों के परिणाम के साथ ही आगे बढ़ना होता है|


विगत तेरह वर्षों से भारत से बाहर हूँ और इस बीच हसदेव नदी से जाने कितना पानी बह गया होगा| लड़कपन से जवानी के रास्ते जिन्दगी आगे बढ़ते जा रही है| अभी तक अपने माता-पिता के सामने बच्चे होने का भाव गया भी नहीं था कि खुद मेरे दो बच्चे सामने खड़े हैं| बड़ा वाला अब दस साल का हो गया है, लगभग उस उम्र का जब मैं और तुम मिले थे| 


लो भला, पुरानी यादों में ही ये पत्र इतना लम्बा हो गया है कि कुछ नई बातें बताने का अवसर ही नहीं मिला| अगले पत्र में तुम्हें यूरोप से जुड़े अपने अनुभव सुनाऊँगा| 


एक बार फिर जन्मदिन पर शुभकामनाओं सहित अब में ये पत्र यहीं समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि हम जल्दी ही मिलेंगे| 

 

तुम्हारा,

मनु

दिनांक 23-दिसम्बर-2019, लक्सम्बर्ग

सोमवार, 7 जनवरी 2019

बरगद का पेड़

आपने सुना होगा
या शायद
देखा भी होगा
बरगद की छाँव के नीचे
कुछ नहीं पनपता,
यहाँ तक की
घास भी
करीने से नहीं होती
उसके नीचे|

पर मैंने देखा है
बरगद का एक ऐसा
विशाल पेड़
जिसके नीचे
अनगिनत पौधे
ने केवल पनपे
बल्कि
बड़े-बड़े वृक्ष हुए
खड़े हैं लहलहाते|

जाने कितनी बार तो
किसी चिड़िया की
चोंच से गिरे
या हवा के झोंके में
उड़कर आये
बीज भी
उस बरगद की छाया में
अंकुरित हुए
खुब फले और फूले भी|

वक्त मिले
तो कभी
उस बरगद की
छाँव में जाकर बैठना,
बड़ा शुकुन मिलेगा,
और मिलेगी
एक ऐसी प्रेरणा
जो आपको भी
बड़ा जीवट
और
कर्मठ बना देगी|

क्या आप नहीं मानते?
अरे भाई!
मैं खुद भी
उसी बरगद की छाया में
पनपा
एक छोटा सा पौधा हूँ
इसलिए
बता रहा हूँ ये कहानी
उस विशाल बरगद की|

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मनीष पाण्डेय "मनु"
अलमेर (नीदरलैंड्स), सोमवार ७ जनवरी २०१९

रविवार, 6 जनवरी 2019

वक्त की नायाब इबारत

दरारें पड़ने लगी हैं
पुराने महल की दीवारों पर,
खिड़की-दरवाजों पर
 जमने लगी हैं जंग की परतें|

हलकी सी बारिस भी
अब सराबोर कर देती है इसे,
सावन-भादों की उफान
जहाँ अपना दम तोड़ देती थी|

पर ये ईमारत सिर्फ एक
दरो-दीवार का दायरा नहीं है,
एक मुस्तकिल निशानी है
पहचान है- कलम के ताकत की|

एक ऐसा चिराग है
कलम की राहों में रौशन,
जिसकी उजालों में
गीतों कहानियों की नस्ले चलेंगी|

एक नायाब इबारत है
जो हजारों दिलों में बस गया है,
एक ऐसा सुरीला गीत है
जो वक्त खुद लिख रहा है इत्मीनान से|


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मनीष पाण्डेय "मनु"
अलमेर (नीदरलैंड्स), रविवार ६ जनवरी २०१९