अरे! ये क्या?
मेरी परछाई
कहाँ है मेरी परछाई?
शायद कहीं
पीछे छुट तो नहीं गई?
पर! पर ये कैसे?
परछाई तो कभी
साथ नहीं छोड़ती,
फिर ये कैसा गजब हुआ?
अब क्या करुँ?
किसे पूछूं?
किसे बताऊँ?
ये वो गली नहीं
जो यारों के घर जाती है,
वो मोड़ भी नहीं
जो घर के तरफ
मुड़ता है|
यहाँ तो
सबकुछ पराया
और अनजाना सा है,
चारों ओर-
अँधेरा ही अँधेरा है|
अँधेरा? हाँ! अँधेरा,
फिर परछाई?
अँधेरे में?
मेरी परछाई
कहाँ है मेरी परछाई?
शायद कहीं
पीछे छुट तो नहीं गई?
पर! पर ये कैसे?
परछाई तो कभी
साथ नहीं छोड़ती,
फिर ये कैसा गजब हुआ?
अब क्या करुँ?
किसे पूछूं?
किसे बताऊँ?
ये वो गली नहीं
जो यारों के घर जाती है,
वो मोड़ भी नहीं
जो घर के तरफ
मुड़ता है|
यहाँ तो
सबकुछ पराया
और अनजाना सा है,
चारों ओर-
अँधेरा ही अँधेरा है|
अँधेरा? हाँ! अँधेरा,
फिर परछाई?
अँधेरे में?
भोपाल से प्रकाशित अप्रवाशी भारतीयों की पत्रिका "गर्भनाल" के जुलाई २०१५ के अंक में छपी मेरी कविता
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