गजल
वजन सीने पे रक्खा है वजन काँधे पे डाला है
वजन से तौल के मिलता यहाँ हर इक निवाला है
वजन से तौल के मिलता यहाँ हर इक निवाला है
शिकायत है उसे हमसे हमारा तौर दूजा है
मगर मालिक ने हम सबको बनाया ही निराला है
कहाँ तुम ढूँढ़ते उसको गुफाओं या पहाड़ों में
हर इक के आत्मा में झाँक कर देखो शिवाला है
कभी साखों पे जिसके बांध झूले डोलते थे हम
बहुत अफसोस के वो पेड़ बूढ़ा गिरने वाला है
यहाँ तक ठीक था वो खुद को इक राजा बताये
अहं में चूर वो खुद को नबी बतलाने वाला है
बहुत बेचैन है राही किसी अनजान खतरे से
किनारा आ गया माझी ने अब लंगर निकाला है
नहीं दरकार है मुझको किसी सजने सँवरने की
मुहौब्बत के दमक से रूप मेरा खिलने वाला है
भले अंधियार काली रात की गहरी सी छाई हो
जला जो दीप छोटा सा पसार जाता उजाला है