जब एकाकी मन घबराए, सूनेपन से जी भर जाये | ले समय कभी उलटे फेरे, हो अंधकार चहुंदिक मेरे| पर चाहूँ "दीप शिखा" पाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || १ || जब थक जाऊँ जीवन पथ पर, और प्यासा बन भटकूँ दर-दर| कहीं कोई शीतल छाँव न हो, चलने में शक्षम पांव न हों | पर चाहूँ नभ में "उड़" जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || २ || जब धीरज मैं न रख पाऊँ, अपनी छाया से डर जाऊँ| कोई दिशा मिले ना जीवन को, न थाह मिले मेरे मन को| पर चाहूँ "तुलसी" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ३ || जब कोई न थामे हाथ मेरे, न हँसते-रोते साथ मेरे| जब मेरे संग न कोई चले, ना मुझे कहीं से मान मिले| पर चाहूँ मैं भी "इठलाना" हे! राम मेरे, तब तुम आना || ४ || |
विश्वास करे ना जग मुझ पर, खो जाये बढ़ने का अवसर| यदि साहस मैं ना कर पाऊँ, और क्षोभ-ग्लानि से भर जाऊँ| पर चाहूँ फिर से "उठ" जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ५ || जब पड़े दुःखों का विष पीना, और हो दुरूह जीवन जीना| कोई रंग बचे न स्वप्नों में, विश्वास बंधे न अपनों में| पर चाहूँ फिर से "मुस्काना", हे! राम मेरे, तब तुम आना || ६ || जब क्षुद्र-कर्म में लग जाऊँ, स्वारथ-शोषण में सुख पाऊँ| नश्वर का लोभ करे यह मन, और अर्थ रहित बीते जीवन | पर चाहूँ "समिधा" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ७ || जब मोह रहे ना जीवन से, और दूर हटे लालच मन से| अंतर्मन करुण पुकार करे, और मन मेरा चीत्कार करे| पर चाहूँ मैं "मुक्ति" पाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ८ || |
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जब सत के पथ न चल पाऊँ, जब भी कुमार्ग को अपनाऊँ| ना राष्ट्र-भूमि का मान करूँ, अलगाव द्वेष के भाव धरूँ| पर चाहूँ "गाँधी" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ९ || |
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मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर (छग), गुरुवार २२-जून -२०००
जाँजगीर (छग), गुरुवार २२-जून -२०००
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