सर
झुक गया है
शर्म से
क्योंकि
फिर एक बेटी
आज हुई शर्मसार,
अपने ही गाँव
गली, घर में
दरिंदों ने कर डाली
उसकी आत्मा
तार-तार,
ऐसा क्यों होता है
बार बार?
कानून है-
लेकिन सब बेकार,
समाज है-
लेकिन
उसको नहीं
नहीं सरोकार,
कोई कहता है
कपडे पहनने का
नहीं है ढंग
और
लड़की के
अच्छे नहीं संस्कार,
फिर कहते हैं
क्यों घूमती है
सिनेमा और पार्क में
लड़कों को
बना के यार,
और अब?
अब कह रहे हैं
सिखाओ आत्मरक्षा
और
लड़कियों के हाथों में
दे दो हथियार,
नहीं डरेगी
किसी से
फिर जब
कोई आएगा पीछे
तो भगा देगी
उसको मार,
मुझे
हंसी आती है
इन बचकानी
बातों पर
जिसका
सच्चाई से
नहीं कोई सरोकार,
अरे!
ये तो बताओ
कैसे सिखाओगे
छह महीने की
दूधमुहि बच्ची को
करना
दुष्टों का प्रतिकार?
कैसे लड़ेगी
पत्थर और डण्डे से
बन्दूक पकड़े
लफंगों के साथ
जो मिलके
आये हैं चार?
और उनको क्या
सिखाओगे
जब हैवानियत होते
समय
पास खड़े थे
माँ-बाप, भाई
लाचार?
फिर उन
उम्र-दराज़
महिलाओं को
क्या सिखाओगे
होता है
जिनके अस्मिता
पर वार?
कौन सा पैंतरा
सिखाओगे
उस लड़की को
जिसे आरोपी
जिन्दा जला देता है
सरे बाजार?
अरे कुछ तो
खुद भी
करके दिखाओ,
कब तक?
आखिर कब तक
बेटिओं को ही
बेटिओं को ही
ढहराओगे
हर बात के लिए
जिम्मेदार?
कब जायेगा
तुम्हारा ध्यान
असली समस्या पर
और कब सिखाओगे
अपने लड़को को
सही आचार?
क्यों नहीं बदलते
उसकी सोच
और
लड़कियों के प्रति
उनका रवैया-
उनका व्यवहार?
सब बेकार!
जब तक
बदलेगी नहीं
हमारी सोच
तब तक,
ये बातें हैं सब बेकार!
सब बेकार!
तब तक, सब बेकार!
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 18-अक्टूबर सितंबर-2020
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