कसम से
दिल में सौ-सौ साँप लोट जाते हैं
जब देखता हूँ
चमचमाती कन्वर्टिबल से
उतरते हुए किसी ऐसे को
जिसके वानप्रस्थ के दिन आ गए हैं
मुझे देखिये साहब
अभी मेरी उम्र ही क्या है?
लेकिन पीछे की ओर
बेबी-ऑन-बोर्ड का स्टीकर लगाए
और बच्चे के बैठने की सीट बांधे
स्टेशन वैगन चला रहा हूँ
ये सब देखकर नाक-कान से
इतना धुआँ निकलता है
कि पता चल जाये तो ग्रेटा थन्बर्ग
मुझे ही जिम्मेदार मान ले
क्लाइमेट चेंज के लिए
समझ नहीं आता
कहाँ जाकर अपना सर पटकूँ?
सोचता हूँ कहीं नेहरू जी
इसके लिए भी जिम्मेदार तो नहीं?
सही बात है कि
कानून के आँखों में पट्टी बंधी होती है
नहीं तो इतनी नाइंसाफी
क्यों होती दुनिया में?
किताबों में पढ़ा है
सब्र का फल मीठा होता है
अजी! होता होगा
लेकिन कितना सब्र करें?
क्या पता
जब तक ये मीठा फल हाथ आये
डॉक्टर हमें डाइबिटीज़ का मरीज बता दे
और हम ये फल खा ही ना सकें
अब मुझे सब्र नहीं होता
अब तो मुझे भी वैसी ही
फर्राटे से चलने वाली
कन्वर्टिबल चाहिए
लाल रंग वाली
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार-13-जून -2021
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