क्यों डालते हैं विघ्न?
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ये भूखे-नंगे
और
जाहिल-गंवार लोग
जाने क्यों
बस मरने के काम
करते हैं?
और यदि
मरना ही है
तो क्यों नहीं मरते
भूख से
और बेकारी से
जहाँ हैं वहाँ
छिपकर?
ऐसे रास्तों में,
रेल की पटरियों पर,
या बैंक की क़तारों में
मर-मर कर
भला क्यों
मज़ा बिगाड़ते हैं
खेल-तमाशे का
बार बार?
क्या समझते हैं,
इनकी बेकार
की चीख पुकार से
करतल ध्वनि का
संगीत फीका पड़
जायेगा?
देखते नहीं
फूल बरस रहे हैं
आसमान से,
वैसे ही जैसे
रामायण और महाभारत
के दिनों में
स्वर्ग से बरसा करते थे?
इतने दीये तो
क्या उस दिन भी
जले होंगे
जिस दिन राम आये थे
अवध में लौटकर
चौदह बरस के बाद?
इतने मगन
तो लोग
क्या उस दिन भी
हुए होंगे
जिस दिन खुद
कन्हैया जमुना किनारे
बजाते थे बंसी?
इतनी देश-भक्ति
तो क्या तब रही होगी
जब देश था गुलाम
और लाठी टेकते गाँधी
सबको साथ ले
निकल पड़े थे
आजादी की राह में?
मन की बात
कहूं तो
लगता है कि
ये बेगैरत लोग
पैदा ही क्यों होते हैं
यूँ वक़्त-बे-वक़्त
मर जाने के लिए?
क्यों
बार-बार
डालते हैं विघ्न
किसी के
महान से भी महानतम
होने के
अभियान में?
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शनिवार ०९-मई २०२०, लक्सेम्बर्ग
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ये भूखे-नंगे
और
जाहिल-गंवार लोग
जाने क्यों
बस मरने के काम
करते हैं?
और यदि
मरना ही है
तो क्यों नहीं मरते
भूख से
और बेकारी से
जहाँ हैं वहाँ
छिपकर?
ऐसे रास्तों में,
रेल की पटरियों पर,
या बैंक की क़तारों में
मर-मर कर
भला क्यों
मज़ा बिगाड़ते हैं
खेल-तमाशे का
बार बार?
क्या समझते हैं,
इनकी बेकार
की चीख पुकार से
करतल ध्वनि का
संगीत फीका पड़
जायेगा?
देखते नहीं
फूल बरस रहे हैं
आसमान से,
वैसे ही जैसे
रामायण और महाभारत
के दिनों में
स्वर्ग से बरसा करते थे?
इतने दीये तो
क्या उस दिन भी
जले होंगे
जिस दिन राम आये थे
अवध में लौटकर
चौदह बरस के बाद?
इतने मगन
तो लोग
क्या उस दिन भी
हुए होंगे
जिस दिन खुद
कन्हैया जमुना किनारे
बजाते थे बंसी?
इतनी देश-भक्ति
तो क्या तब रही होगी
जब देश था गुलाम
और लाठी टेकते गाँधी
सबको साथ ले
निकल पड़े थे
आजादी की राह में?
मन की बात
कहूं तो
लगता है कि
ये बेगैरत लोग
पैदा ही क्यों होते हैं
यूँ वक़्त-बे-वक़्त
मर जाने के लिए?
क्यों
बार-बार
डालते हैं विघ्न
किसी के
महान से भी महानतम
होने के
अभियान में?
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शनिवार ०९-मई २०२०, लक्सेम्बर्ग
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