बुधवार, 1 अप्रैल 2020

दिल ढूंढता है

इन्सान कामकाज के चक्कर में गाँव-घर से निकल तो जाता है लेकिन हर बात हर जगह पर उसे जो पीछे छूट गया है उस की याद आती रहती है और नई जगह के नए चीजों में कहीं कहीं से उसे बिछड़े की छवि दिख जाती है। ऐसा लिखते हुए मुझे गजल सम्राट जगजीत सिंह की आवाज में प्रसिद्ध गीत ‘कहीं कहीं से हर चेहरा, तुम जैसा लगता है’ की याद हो आयी। और तो और यह गाना जिस एल्बम का है उसका नाम भी सटीक है- ‘दिल कहीं होश कहीं’। वैसे गाँव घर को छोड़कर जाने वालों के दर्द का बयान डॉ राही मासूम रजा के लिखे और एक बार फिर से जगजीत सिंह की रूहानी आवाज में गाये इस  कालजयी नगमे ‘हम तो हैं परदेस में, देश में निकला होगा चाँद’ से  बढ़कर कोई और नहीं कर सकता

ऐसा नहीं है कि यह टीस सिर्फ उन्हें आती है जो सच में परदेश में होते हैं बल्कि हर उस इंसान को होती है जो अपनों से दूर किसी और जगह पर भले वह जगह महज पाँच-दस किमी की दूरी पर ही क्यों ना हो लेकिन जो सच में परदेश में हों उनकी टीस में सोने के पिंजरे में कैद मोती चुगने वाले पंछी की टीस होती है जिसके पर कुतरे हुए हों। ये अलग बात है कि ये सोने का पिंजरा किसी और ने नहीं बल्कि पंछी ने खुद बनाया है और उसके पर कुतरे नहीं हैं बल्कि उसने खुद ही सिकोड़ लिए हैं। जब चाहे वो मोतियों भरी कटोरी को ठोकर मार और पिंजरा खोल उड़ सकता है, जरूरत है तो बस पंखों को खोल कर फड़फड़ाने की। लेकिन ऐसा होता नहीं है या कहें ऐसा कोई करता नहीं है। इंसान भी गजब जीव है उसे दोनों हाथों में लड्डू चाहिए और हो सके तो मुँह में भी ठूँस ले।

अब जब देश से बाहर रहने ही लगे तो फिर धीरे धीरे उसमें रचने बसने भी लग ही जाते हैं लेकिन शुरुआत के दिनों में हर नई चीज से किसी ना किसी पुराने को जोड़ने के मोह से बच नहीं पाता है। ऐसे ही कुछ मेरे अनुभव और मोह पास के धागों की गुत्थी आपसे साझा कर रहा हूँ।

1) हेलोवीन का त्यौहार
मैं मूल रूप से भारत में छत्तीसगढ़ राज्य का निवासी हूँ और इस प्रांत को “धान का कटोरा” कहते हैं। सहज है कि फिर इस प्रांत में ऐसे कई त्योहार होंगे जो धान के बुआई, रख-रखाव से लेकर कटाई और भंडारण तक के विषयों से जुड़े होंगे। उन्हीं त्योहारों में से एक विशेष त्योहार है जिसका नाम है “छेर-छेरा”। यह त्योहार हिंदी पंचांग के अनुसार पूस माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। साल के इस समय तक फसल की कटाई के बाद मिसाई (वह प्रक्रिया जिसमें धान के बीजों को उसकी बालीयों से धान के रूप में अलग किया जाता है) हो चुकी होती है। परम्परागत रूप से इस समय तक लोग साल भर के खाने और अन्य उपयोग के लयक धान अपने घर की कोठियों (छत्तीसगढ़ी भाषा में इस शब्द का मतलब उन परम्परागत भंडारण की जगह से होता है जिनमें अनाज, दलहन और तिलहन आदि सुरक्षित रखा जाता था) में भर लिया जाता था। वैसे तो त्योहार से जुड़ी कई मान्यताएँ प्रचलित हैं लेकिन मूल धारणा यह है कि जिसकी जितनी हैसियत है उस हिसाब से वह दूसरों के साथ धान बाँटता है ताकि गाँव में कोई भूखा और वंचित ना रह जाए। इस दिन किसान से लेकर मजदूर तक घर-घर जा कर धान का दान माँगते है और ऐसे करने के लिए दरवाजे पर हाँक लगाकर कहते हैं - “छेरछेरा, कोठी के धान ला हेर ते हेरा” जिसका मतलब होता है कि हम छेरछेरा माँगने आए हैं और आप कोठी से धान निकालकर दीजिए। बचपन से घर के बड़ों को तैयारी के साथ दरवाज़े के पास धान रखने और देने के लिए छोटी टोकरी के साथ खाने पीने के सामान की व्यवस्था करते देखा है।सुबह से दोपहर तक लोग आते जाते और टोकरी में धान दिया जाता। किसी के मन में माँगने का हीनभाव नहीं और किसी में मन में देने का अभिमान नहीं। दोनों ऐसे अपना काम करते जैसे कि ग्रामीण जीवन के खेला में अपना अपना किरदार निभा रहे हों।

ज़मींदार घरों के बच्चे होने के कारण हमें तो धान माँगने जाने की जरुरत नहीं होती थी पर कौतूहल वश हम अपने घर में चाचा-ताऊ आदि से छेरछेरा माँगा करते थे और जो धान मिला उसे पास के दुकान वाले को देकर खाने पीने का सामान लेते थे। मैं संतरा गोली और मिक्चर जरूर लेता था।

बात सन् 2007 की है जब मुझे अमेरिका आए हुए साल भर नहीं हुआ था और मैं उत्तर कैरलाइना राज्य के शहर “शार्लट” में रहता था। हम तीन साथी एक घर में रहते थे और अन्य कई साथी उसी मोहल्ले में अन्य घरों में रहते थे।अक्टूबर महीने के दूसरे सप्ताह आते-आते दुकानों में और विज्ञापनों में एक अलग सुगबुगाहट होने लगी थी। भूतिया मुखौटे, कंकाल, ड्रैक्युला आदि के कपड़े, चमगादड़, डरावने से और कद्दू के बने लालटेन जैसी चीजें सजने लगीं दुकानों पर तो उत्सुकता हुई कि ये सब क्या है? पूछताछ करने पर पता चला कि “हैलोवीन” का त्योहार आ रहा है। इस वर्ष यह त्यौहार बुधवार ३१ ऑक्टोबर २००८ को पड़ने वाला था।

और पता चला कि इस दिन शाम ढलने के बाद अंधेरा होने पर बच्चे (और कहीं कहीं बड़े भी) ऐसे उटपटाँग से डरावने कपड़े पहनकर और हाथ में दिए वाले लालटेन या बैटरी वाले लटकते लालटेन लेकर निकलते हैं और घर घर जा कर “ट्रिक ऑर ट्रीट” कहते हैं। उनका आशय होता है कीं या तो हमें कुछ ट्रीट मतलब चॉकलेट, टॉफी या और कुछ इस तरह के बच्चों के खाने की चीजें, कुछ छोटे खिलौने आदि जो आपका मन वो दीजिए या फिर हम उत्पात मचाएँगे। कुछ बच्चे हैलोवीन वाले समूह गीत भी गाते चलते हैं। बच्चे छोटे हों तो उनके पालक भी साथ चलते हैं और बड़े हों तो टोली बना कर निकल पड़ते हैं। काफिला इस तरह एक घर से दूसरे जाता जाता है और उनके छोले तरह तरह के खाने पीने के सामान और खिलौनों से भरते जाते हैं। किसी अपने के घर पहुँच गए तो और भी कुछ मोटी भेंट हाथ लग जाती है।



जब हैलोवीन का दिन आया बड़ी उत्सुकता से हम देखने लगे और एक टोली के पीछे हो लिए। बहुत ही शानदार माहौल बन गया था और सभी बड़े प्यार से नन्हे नटखटों का स्वागत करते और इन्हें खाने पीने की चीजें देते।

यह सब देखकर मुझे अपने बचपन के त्यौहार “छेरछेरा” की याद हो आयी फिर मैं रुक कर अपनी माँ को फोन लगाकर “हैलोवीन” के बारे में बताने लगा और बच्चों की टोली हँसते गाते आगे चली गयी।

2) क्रिसमस की सजावट
दिवाली के त्योहार पर घरों में होने वाले रंग-रोगन और सजावट के बारे में किसी को बताने की जरुरत नहीं है। भले अब समय थोड़ा बदल रहा है और लोग अपनी सुविधानुसार काम करने लगे हैं लेकिन नब्बे के दशक में जब हमारी पीढ़ी बड़ी हो रही रही थी तबतक दिवाली के पहले ही घरों में साफ़ सफ़ाई के। आस पुताई का काम होता था। पता नहीं कितने दिवाली हमने पेंट के धब्बों वाले हाथ पैरों से मनाई है जो घर के खिड़की-दरवाज़े और कुर्सी-टेबल की पुताई करते हुए लगे थे।उसके बाद आता था दौर घर के बाहर बिजली झालर, आकाश दिया और कंदील लगाने का। तब तक बाज़ारों में चाइना के बने फैंसी बल्ब के झालर नहीं आते थे। उत्तरप्रदेश के उद्योगों में बने दो टांगों वाले छोटे बल्बों की लड़ी बनाने के लिए हाथ से तार मोड़-मोड़ कर झालर बनाते थे और छोटे-छोटे मोटरों से बने लड़की के स्विच से उनके जलने बुझने के क्रम बनाए जाते थे। दुकानों और बड़े प्रतिष्ठानों में “टेंट और डेकोरेशन” वालों के सजावट लगते थे। कहीं-कहीं बिजली से बनी झाकियाँ भी लगती थी जिसे हम दिवाली की रातों को देखने जाया करते थे। तब तक दिवाली को लगभग पूरे पाँच दिन तक दुकानों, घरों और सड़कों की चमक दमक देखते ही बनती थी।

अमेरिका में मेरा आना हुआ १६ दिसम्बर २००६ को और तब तक क्रिसमस का खुमार सब तरफ चढ़ने लगा था इसलिए एर्पॉर्ट से ही सजावट, क्रिसमस ट्री और क्रिसमस से जुड़ी झाँकियाँ जैसे की रेनडियर, स्लेज में सवार सांता आदि लगने शुरू हो गए थे।कुछ दिनों में रिहायशी इलाकों में भी लोगों ने और  भी कई तरह की झाँकियाँ लगानी शुरू कर दी और उनकी खूबसूरती एकदम मन को मोह लेती थी। हम जहां रहते थे इस मोहल्ले में भी सजावट होने लगी और ऑफ़िस के बिल्डिंग, सामान लेने जाते इस सुपर मार्केट, बैंक, रेस्टोरेन्ट आदि सभी जगह जगमगाहट और सजावट हो गयी। ऑफिस आते-जाते सड़कों पर भी वही नजारे होते थे।

चूँकि मैं भारत के ऐसे इलाके से आता था जहाँ मसीहीयों का समुदाय बहुत छोटा और सिमटा हुआ था तो कभी क्रिसमस की ऐसी सजावट देखी नहीं थी और मन में एक धारणा बन गयी थी क्रिसमस की सजावट और बाकी सब हो-हल्ला सिर्फ बाजार और व्यापार के लिए है। फिल्मों या टीवी पर देखे सजावट से कोई व्यक्तिगत अनुभव जुड़े नहीं होते हैं। इसलिए क्रिसमस की यह सजावट बहुत आकर्षित करती थी।

सन् 2008 की गर्मी में शादी के बाद काम के कारण अक्टूबर महीने में हम लोग न्यू जर्सी के एक छोटे से शहर पोर्ट मैमथ रहने चले आए। न्यू जर्सी की फिजा शार्लट से बहुत अलग थी। शार्लट में हम जिस मोहल्ले में रहते थे उसमें अधिकांश बाहरी लोग रहते थे जो कामकाज के सिलसिले में वहाँ रहते थे। भले एक बड़ा तबका अमेरिकियों का भी था लेकिन वे भी प्रान्त या देश के किसी ना किसी अलग जगह से आए थे। पर अब हम जहाँ रहने आए वो जगह स्थायी रहने वालों का मोहल्ला था और बहुत कम लोग थे जी हम जैसे प्रवासी थे।

फिर आया क्रिसमस का मौसम और मैंने अपनी पत्नी को सजावट के अपने अनुभव सुनाने लगा पर साथ ही कहता जाता कि पता नहीं यहाँ कैसा होगा क्योंकि ये रिहायशी इलाका है और मेरी समझ में क्रिसमस तो व्यापारिक जगहों पर अधिक ताम-झाम से होता है। मेरी अपेक्षा के विपरीत जब सजावट होने लगी तो पता चला कि लोग सचमुच क्रिसमस को बड़े लगन से मानते हैं। लगभग हर घर के दालान में कुछ ना कुछ सजावट थी और एक से बढ़कर एक। फिर क्रिसमस के एक दिन पहले थोड़ी बर्फबारी हुई तो फिर तो क्या कहना। सब कुछ ऐसा लग रहा है था जैसे सच में नहीं बल्कि किसी फिल्म के सेट का हिस्सा हो। मेरी पत्नी ने इच्छा जताई कि क्यों ना हम सब सजावट देखने चलें और फिर क्या था हम निकल पड़े अपनी कार में बैठकर सडकों पर गाड़ी चलाते हुए सजावट देखने बिलकुल उसी तरह जैसे अपने शहर में दिवाली की सजावट देखने जाया करते थे।



3) ग्रैंडफादर माउंटेन - उत्तर कैरोलिना
अमेरिका जाने से पहले मैं लगभग दो साल  तक पुणे शहर में रहा और शायद आपको पता हो कि पुणे के आस पास बहुत से किल्ले और गढ़ हैं जो कभी मराठा राजवंशों के बड़े बड़े राजा-रजवाड़ों के शक्ति केंद्र होते थे लेकिन आज पिकनिक और चढ़ाई आदि के स्थल रह गए हैं। उन सभी में सिंहगढ़ के किले का नाम सबसे ऊपर आता है और कोई अपने आपको तब तक पुणेरी नहीं कह सकता जब तक उसने सिंहगढ़ के किले में गया ना हो और समय के साथ खोये उसके वैभव को अनुभव करने का प्रयास ना किया हो। सिंहगढ़ का किला पुणे शहर से कुछ 25 किमी की दुरी पर है। सहयाद्रि पर्वत श्रंखला के पूर्वी किनारे में बना यह महान किला समुद्र तल से कुछ सात सौ मिटर की ऊंचाई पर स्थित है और उसके उसके दुर्ग द्वार तक जाने के लिए अनमने से खड़े कई पहाड़ियों के लेटे किसी बड़े अजगर के शरीर जैसे घुमावदार रास्तों पर गाड़ी चढ़ाना पड़ता है। यदि आपकी गाड़ी पुरानी हुई तो बस यूँ लगता है कि किसी बूढ़े घोड़े के तरह जवाब ना दे दे। पहाड़ी से उतरना भी अपने आप में एक कठिन काम होता था क्योंकि गहरे से ढलान वाले रास्तों में गाड़ी यदि गेयर में ना हो तो नियत्रण से बाहर होकर तेज चलने लगती है और मोड़ पर नहीं सम्हाल पाए तो गाड़ी नीचे और आप ऊपर। गेयर में लगाकर चलायें तो गाड़ी बहुत आवाज करती है क्योंकि एक्सिलरेटर तो दिया नहीं जाता क्योंकि गाड़ी पहले ही तेज चल रही है। कुल मिलाकर चढ़ना और उतरना दोनों से जोखिम का ही काम है खासकर किसी नौसिखिये के लिए।

पुणे में रहने के दौरान अपने दोस्तों के साथ मैं कई बार उस किले में गया हूँ और उसके पुराने किले के दीवारों पर बैठकर दूर तक प्रकृति की सुंदरता को निहारता बैठा रहा हूँ। ऊपर पहाड़ी पर एक ऐसी जगह है जिसे “विंड पॉइंट” कहते हैं और स्थान विशेष पर होने के कारण यहाँ पर हवा का तेज बहाव होता है। सबसे बड़ी खूबी यह है कि जब आप पहाड़ी से खाई की ओर प्लास्टिक, कपड़े या कागज जैसी कोई चीज जैसे फेंकते हैं तो वो चीज नीचे जाने के बदले ऊपर की और उठने लगती है।

वैसे तो किसी भी मौसम में सिंहगढ़ की यात्रा मजेदार होती है पर सबसे अच्छा समय होता है बरसात का मौसम क्योंकि इस मौसम में वहाँ बादलों के झुण्ड भी आये होते हैं जो क्षत्रपति शिवाजी महराज के वीर सेनापति तानाजी मालसुरे के वीरता और उनके बलिदान की याद में रुआँसे से होकर यहीं रुक जाते हैं। हम भी एक बार उतरती जुलाई या फिर चढ़ते अगस्त में गए थे और उस दिन भी ऐसा ही कुछ मौसम था तो ऐसा लग रहा था जाने किस हिल स्टेशन पर आ गए हैं। सबसे खास बात थी कि दो पत्थर को रखकर बनाये चूल्हे पर बन रहे पिठला को जलती लकड़ी के ऊपर सिंकते भाखरी के साथ खाने को मिला जो शर्द हो रहे मौसम के हिसाब से बहुत ही लाजवाब लग रहा था। मुँह पर उसका स्वाद आज भी ऐसा बसा है कि याद करके ही मुँह में पानी आने लगा है।

जब मेरी शादी हुई तब मैं पहले से ही अमेरिका में रहता था और शादी के बाद पत्नी भी साथ ही शार्लेट आ गई। उन दिनों हम लोग जब भी मौका मिला तो आस पास घूमने चले जाया करते थे। गूगल में आस पास में कोई नई जगह खोजी और निकल पड़े कार से। ऐसे ही एक बार पता चला कि हमारे घर से कुछ एक सौ बीस मील की दूरी पर “ग्रैंड फादर माउंटेन” नाम की एक खूबसूरत पहाड़ी है और उसके सबसे ऊपरी चोटी पर लक्ष्मण झूला (स्विंगिंग ब्रिज) है। शनिवार की सुबह थी तो आनन फानन में खाने पीने का कुछ सामान रखकर हम दोनों निकल पड़े अपनी कार से। रास्ते में बहुत खूबसूरत नजारे देखते हुए हम उस पहाड़ी के तलहटी पर पहुँचे तो एकबार तो लगा कि सचमुच इस पहाड़ी पर जाना है? चूँकि निकल ही पड़े थे सोचा चलो देखते हैं जाकर, ऐसे भी उसके बारे में गूगल में बहुत गुणगान पढ़ कर आये थे तो बीच रास्ते से लौटना सही नहीं लगा। मन में संशय के साथ गाड़ी पहाड़ी के रस्ते में घुमा दी और कभी दूसरे तो कभी तीसरे गेयर के सहारे गाड़ी चढ़ने लगी। रास्ते में ऐसी कई जगहें थी जहाँ पर लोग रुक कर नीचे की तलहटी के दृश्यों का मजा लेते थे और जब चढ़ते-चढ़ते ऐसा लगा कि गाड़ी ने बहुत दम लगा लिया तो ऐसे ही एक जगह पर रुक गए।

अगले पड़ाव में हम ऊपर तक पहुँच ही गए और वहां का नजारा देखते ही बनता था। अमेरिका में सब कुछ व्यापार से जुड़ा होता है तो वहाँ खाने-पीने की दुकानों के साथ उपहार और प्रतीक चिन्हों (गिफ्ट और सोवेनियर) की भी दुकान थी। हमने झूलते पुल, पहाड़ी आदि के नजारों के साथ घर के बने खाने का मजा लिया और फिर शाम ढलने के पहले घर के लिए निकल पड़े। मैंने ऊपर जाते हुए यह  तो सोचा ही नहीं था कि ऐसी पहाड़ी ढलानों में गाड़ी ऊपर ले जाना जितना कठिन लगता है उससे कहीं कठिन होता है गाड़ी नीचे उतारना। और ग्रैंडफादर माउंटेन से सम्हल-सम्हल कर गाड़ी उतारते हुए सिंहगढ़ की याद आई एक दिन अपनी पत्नी को भी सिंहगढ़ ले जाने की बात कहते सुनते घर की और चल दिए।



ऐसे और ना जाने कितनी और घटनाएं और जगहें हैं जो बीते दिनों की याद दिलाती रही हैं। जैसे चेस्टनट के बौर आने पर वसन्त पंचमी तक आम के पेड़ों पर लद जाने वाले बौर को खोजना या सितम्बर महीने की ढलती शाम में दिवाली के दिनों के गुलाबी ठण्ड की याद हो और सन् 1995 में स्कुल की ओर से राज्य स्तरीय विज्ञान प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए सागर शहर जाने और पहाड़ी पर बसे उस शहर को लक्समबर्ग शहर के उतर चढाव में खोजना। पता नहीं क्यों हर आने वाले पल में बीते हुए पलों की याद आती है।

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