उसे आईना
पसंद नहीं है,
कि आईना
खोल देता है
उसके सारे भेद
बोल देता है
सारी बातें बेबाक
जो उसे दिखाई देती हैं
नकाब
के पीछे की
असली सूरत
आईने से
छिपती नहीं है,
दिखावे का रंग रोगन
चाहे कितना भी
पुता हो,
चहरे की हकीकत
साफ़ नज़र आती है
उसे चिढ़ है
आईने से
कि आईने में
उसकी
असलियत झलकती है,
छलकती है
उसकी बेईमानी,
जिस पर
उसने ईमान का
चोला चढ़ाया है
आईने की
ये साफ-गोई
उसे मंजूर नहीं
और वो
तिलमिला उठता है
|
सहे भी कैसे?
मुखौटे से ढंकी
उसकी कायनात
शीशे में
रेत की ढेरी
नजर आती है,अब उसने
कर लिया है फैसला,
कि मिटा देगा
वज़ूद,
न रहेगा आईना
और न उसे
ये रोज़ की
जिल्लत होगी,
गुस्से में भर कर
वो तोड़ देता है
आईना, मगर ये क्या?
कल तक तो
एक ही था
पर आज
उस आईने के
सौ टुकड़े हैं
और हर टुकड़ा
चीख-चीख कर-
उसकी बेबसी
बयान करता है...
|
|
—————————————————————————— मनीष पाण्डेय “मनु” जाँजगीर, शनिवार ४ नवम्बर २००० |
शनिवार, 4 नवंबर 2000
आईना
लेबल:
Poetry
अमरत्व तक
हो रही है साजिश
मुझे मरने की,
जहर घोला जा रहा है
मेरी नसों में,
हो रही तैयारी
मुझे चौगान पर ही
रोक देने की।
मैं जानता हूँ
कि उन्हें डर लगता है
मेरी मौजूदगी से
मेरी आंखो को रोष
दहशत बनकर
उनके भीतर उतरती है
उन्हें लगता है
कि हर कदम पर
मैं उनकी राह का कांटा
बनता जा रहा हूँ
जो खंजर कि तरह
जो उतरेगा उनके
दिल कि गहराइयों तक
और निकाल देगा
उनकी सारी हैवानियत
जो उनके रागो में दौड़ रही है
सारी जुगत लगा रहे हैं
वे लोग
लेकिन मैं नहीं मरूँगा
क्योंकि मैंने थम ली है कलम
जिससे उपजा अक्षर-अक्षर
ले जाएगा मुझे
अमरत्व तक
———————————————
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
शनिवार 4 नवंबर, बिलासपुर, भारत
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
शनिवार 4 नवंबर, बिलासपुर, भारत
सोमवार, 10 जुलाई 2000
सवाल
कुछ तुकबन्दियाँ सुनकर
लोग कहने लगे हैं
कि मैं कवि हूँ.
साहित्य के क्षितिज पर
उगता हुआ
रवि हूँ.
सबेरा होने को है
और कालिमा
दम तोड़ रही है,
पर अपने पीछे
मन में
एक सवाल छोड़ रही है.
जब मेरी कविता के
उजाले में
उनका दोष दिखाई देगा,
तब भी क्या ये समाज
मुझे हाथों-हाथ लेगा?
-----------------------------------------------------
मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर, शनिवार, १० जुलाई २०००
लोग कहने लगे हैं
कि मैं कवि हूँ.
साहित्य के क्षितिज पर
उगता हुआ
रवि हूँ.
सबेरा होने को है
और कालिमा
दम तोड़ रही है,
पर अपने पीछे
मन में
एक सवाल छोड़ रही है.
जब मेरी कविता के
उजाले में
उनका दोष दिखाई देगा,
तब भी क्या ये समाज
मुझे हाथों-हाथ लेगा?
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मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर, शनिवार, १० जुलाई २०००
लेबल:
Poetry
गुरुवार, 22 जून 2000
हे राम मेरे तब तुम आना
जब एकाकी मन घबराए, सूनेपन से जी भर जाये | ले समय कभी उलटे फेरे, हो अंधकार चहुंदिक मेरे| पर चाहूँ "दीप शिखा" पाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || १ || जब थक जाऊँ जीवन पथ पर, और प्यासा बन भटकूँ दर-दर| कहीं कोई शीतल छाँव न हो, चलने में शक्षम पांव न हों | पर चाहूँ नभ में "उड़" जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || २ || जब धीरज मैं न रख पाऊँ, अपनी छाया से डर जाऊँ| कोई दिशा मिले ना जीवन को, न थाह मिले मेरे मन को| पर चाहूँ "तुलसी" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ३ || जब कोई न थामे हाथ मेरे, न हँसते-रोते साथ मेरे| जब मेरे संग न कोई चले, ना मुझे कहीं से मान मिले| पर चाहूँ मैं भी "इठलाना" हे! राम मेरे, तब तुम आना || ४ || |
विश्वास करे ना जग मुझ पर, खो जाये बढ़ने का अवसर| यदि साहस मैं ना कर पाऊँ, और क्षोभ-ग्लानि से भर जाऊँ| पर चाहूँ फिर से "उठ" जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ५ || जब पड़े दुःखों का विष पीना, और हो दुरूह जीवन जीना| कोई रंग बचे न स्वप्नों में, विश्वास बंधे न अपनों में| पर चाहूँ फिर से "मुस्काना", हे! राम मेरे, तब तुम आना || ६ || जब क्षुद्र-कर्म में लग जाऊँ, स्वारथ-शोषण में सुख पाऊँ| नश्वर का लोभ करे यह मन, और अर्थ रहित बीते जीवन | पर चाहूँ "समिधा" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ७ || जब मोह रहे ना जीवन से, और दूर हटे लालच मन से| अंतर्मन करुण पुकार करे, और मन मेरा चीत्कार करे| पर चाहूँ मैं "मुक्ति" पाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ८ || |
|
जब सत के पथ न चल पाऊँ, जब भी कुमार्ग को अपनाऊँ| ना राष्ट्र-भूमि का मान करूँ, अलगाव द्वेष के भाव धरूँ| पर चाहूँ "गाँधी" बन जाना, हे! राम मेरे, तब तुम आना || ९ || |
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मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर (छग), गुरुवार २२-जून -२०००
जाँजगीर (छग), गुरुवार २२-जून -२०००
बुधवार, 8 मार्च 2000
कालिमा जली न निज मन की
कालिमा जली न निज मन की,
होली हर वर्ष जलाते हैं।
हम पहन मुखौटा राग द्वेष,
स्वारथ के रंग उड़ाते हैं॥
अब समय नहीं तब सा पावन,
ना कोई जले मानवता पर।
प्रभु पर भी वह विश्वाश नहीं,
सबने ली है दानवता धर॥
इतना साहस अब किस्मे है,
उस पापिन का उद्धार करे?
प्रहलाद न बनाता अब कोई,
होलिका खड़ी चीत्कार करे॥
वृद्धावस्था की ड्योढ़ी पर,
जीवन संध्या की वेला में।
बिन अस्त्र-सस्त्र निज पशुमन ने,
यह काम कर दिया हेला मैं॥
स्तम्भ प्रतिष्ठित करें किसे,
वह शक्ति कौन यह पीर हरे?
हिरनकश्यप तो पिता नहीं,
पर पुत्र स्वयं नरशिंह बने॥
यमुना में विषधर अब भी है,
विष भरे फनों फुत्कारे।
वह कान्हा अब न मथुरा में,
कालिया दमन कर फटकारे॥
अब कटता है वो पेड़ कदम्ब,
जलती सद्भावों की होली।
राधा, सब सखियाँ जायें कहाँ,
चहुँ ओर है कलुषित खल टोली॥
सर्वत्र अमंगल बीत रहा,
मन का धीरज डगमग डोले।
क्या शेष नहीं कुछ करने को?
कातर स्वर में पौरुष बोले॥
मन का ढाढस बंधे रखना,
यह रात बीत ही जाएगी।
खेलेंगे खुशियों की होली,
वह सुबह कभी तो आएगी॥
कालिमा जले अब निज मन की,
ऐसी होली इस वर्ष मने।
हम वरण करे अब राग-हर्ष,
जीवन के रंग गुलाल बने॥
नोट: यह मेरी पहली कविता है
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हेला में = खेल-खेल में
फुत्कारे = फुत्कार/फुक्कार करे
कातर = व्याकुल, व्यथित
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मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर, बुधवार ८ मार्च २०००, जांजगीर
होली हर वर्ष जलाते हैं।
हम पहन मुखौटा राग द्वेष,
स्वारथ के रंग उड़ाते हैं॥
अब समय नहीं तब सा पावन,
ना कोई जले मानवता पर।
प्रभु पर भी वह विश्वाश नहीं,
सबने ली है दानवता धर॥
इतना साहस अब किस्मे है,
उस पापिन का उद्धार करे?
प्रहलाद न बनाता अब कोई,
होलिका खड़ी चीत्कार करे॥
वृद्धावस्था की ड्योढ़ी पर,
जीवन संध्या की वेला में।
बिन अस्त्र-सस्त्र निज पशुमन ने,
यह काम कर दिया हेला मैं॥
स्तम्भ प्रतिष्ठित करें किसे,
वह शक्ति कौन यह पीर हरे?
हिरनकश्यप तो पिता नहीं,
पर पुत्र स्वयं नरशिंह बने॥
यमुना में विषधर अब भी है,
विष भरे फनों फुत्कारे।
वह कान्हा अब न मथुरा में,
कालिया दमन कर फटकारे॥
अब कटता है वो पेड़ कदम्ब,
जलती सद्भावों की होली।
राधा, सब सखियाँ जायें कहाँ,
चहुँ ओर है कलुषित खल टोली॥
सर्वत्र अमंगल बीत रहा,
मन का धीरज डगमग डोले।
क्या शेष नहीं कुछ करने को?
कातर स्वर में पौरुष बोले॥
मन का ढाढस बंधे रखना,
यह रात बीत ही जाएगी।
खेलेंगे खुशियों की होली,
वह सुबह कभी तो आएगी॥
कालिमा जले अब निज मन की,
ऐसी होली इस वर्ष मने।
हम वरण करे अब राग-हर्ष,
जीवन के रंग गुलाल बने॥
नोट: यह मेरी पहली कविता है
----------------------------------------------
हेला में = खेल-खेल में
फुत्कारे = फुत्कार/फुक्कार करे
कातर = व्याकुल, व्यथित
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मनीष पाण्डेय "मनु"
जाँजगीर, बुधवार ८ मार्च २०००, जांजगीर
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