हिन्दी?
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हिन्दी तो
उस गरीब माँ की तरह
अभागन हो गयी है
जिसके बच्चे
पढ़ लिख कर
जब ऊँचे रहन सहन का
हिस्सा बन जाते हैं,
फिर तो सबके सामने
अपने माँ-बाप के
पैर छूना तो दूर
उनसे बात करने से भी
कतराते हैं|
हिन्दी?
हिन्दी तो
उस गाँधीवाद के समान
एक ढकोसला
बन गया है
जिसके गुण तो
बढ़ाचढ़ा कर
सभी गाते हैं
वाह-वाही
लूटने के लिए,
लेकिन अपनाता
कोई नहीं|
हिन्दी?
हिन्दी तो
सनातन धर्म के
उन मूल्यों के समान
हो गयी है,
जिसके नाम पर
विश्व-गुरु होने की
बात तो सभी करते हैं
लेकिन
उसके परम्पराओं और
संस्कारों को
पुराने और
दकियानूसी सोच का
हिस्सा मानकर
उसका पालन
खुद नहीं करते|
यदि ऐसा नहीं है
तो क्यों
पितृपक्ष में
किये जाने वाले
मातृ-नवमी के
वार्षिक तर्पण के समान
बस एक दिन
"हिन्दी दिवस" मनाकर
हम अपने कर्तव्यों
की पूर्ति मान लेते हैं?
क्यों हिन्दी
हमारे रोजमर्रा
का हिस्सा नहीं है?
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मनीष पाण्डेय “मनु” लक्सम्बर्ग,
हिन्दी दिवस सोमवार 14-सितंबर-2020
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