साहित्यकार तो अपने आप में
सत्ता का शाश्वत विपक्ष होता है
आँखे मूँद भाण्ड बन जाए तो
इतिहास खून के आंसू रोता है
कवि कुमार विश्वास के मुँह
मैंने कहीं कभी सुनी ये बात
थी अच्छी लगी दिल को मेरे
इसलिए रह गयी मुझे याद
यूँ मैं भी खुद को अकसर
विपक्ष में ही खड़ा पाता हूँ
भीड़ से अलग चलता हूँ
सो "विद्रोही" कहलाता हूँ
कांग्रेस ने बहुत दिनों तक
यही शातिर चाल चला है
वर्ग विशेष की तुष्टि कर
सचमुच में देश को छला है
पर पधारे हैं जो अब की बार
उनकी भी तो छटाएँ अलग हैं
डूबे अर्थव्यवस्था, मरे मजदूर
पर दोष न लगे पुरे सजग हैं
जी ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ
दूसरों पर ही उंगली उठाता हूँ
खुद की समीक्षा भी करता हूँ
तभी रात बेफिक्र सो जाता हूँ
दूसरों पर ही उंगली उठाता हूँ
खुद की समीक्षा भी करता हूँ
तभी रात बेफिक्र सो जाता हूँ
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