बुधवार, 16 जनवरी 2008

जिन्दगी की नाव

कभी-कभी
यूँ लगता है कि
बारिश के पानी में
किसी कागज कि कश्ती
के समान है ये जिन्दगी।
।। १ ।।

कागज़ के पन्ने से
बनाते हैं एक नाव,
और छोड़ देते हैं
गली में बहते पानी में।
धार बहती है
और नाव चलती जाती है
फिर बच्चे
उछल-कूद करते हैं
उमंग से।
।। २ ।।


किसी और की
नाव को आगे देख
कोई शरारती बच्चा
पत्थर मार
गिराने लगता है
वो नाव,
एक निशाना लगते ही
उलट जाती है नाव,
और रूक जाती हैं साँसे,
फिर आती हैं बारी-
रोने-चिल्लाने की।
।। ३ ।।

फिर कहीं से खोज कर
एक और कागज़
बनायीं जाती है
एक नयी नाव,
और एक बार फिर
शुरू होती है
उत्साह और उत्सुकता
की बाल-क्रीडा।
।। ४ ।।

आगे किसी छोर पर
जब मुड़ जाती है गली
कहीं किसी ओर,
तब अटक जाती है नाव
एक किनारे पर,
रूक जाती हैं तालियाँ
फिर दूर किनारे पर
खड़े बच्चे
लगाते हैं आवाज में दम
कि शायद
निकल पड़े अटकी नाव ।
।। ५ ।।

भीड़ से एक बच्चा
छपाक करता
उतरता है पानी में,
लाता है नाव को
पानी की धार में,
और एक बार फिर
शुरू हो जाता है
नाव रूपी
जीवन का खेला
मानो जैसे
न रुका था कभी
और न रुकेगा कभी।
।। ६ ।।