मंगलवार, 23 जून 2020

चलते चलते

कविता की पाठशाला - गृह कार्य ३ - दिए हुए मुखड़े पर अन्तरे लिखें
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कहाँ आ गये चलते चलते
12     2   12  112  112     = 16
और कहाँ जाना
21   12   22                     = 10 => 26
भूल गए धरती की ख़ुश्बू
21  12  112   2   112       = 16
चिड़ियों का गाना
   112    2   2 2                 = 10 =>26

बतियाते सर्जन की बात
  11 22    211   2   21     = 15
कर निसर्ग का नास
  11  121    2   21           = 11 =>26
प्लास्टिक से पाटी अवनि
211        2   22   111       = 13
सेटेलाइट आकाश
22211      221                 = 13 =>26
शस्य श्यामला धरती रोती
  21   212      112   22    = 16
बन कचरा खाना
11    112    22                = 10 =>26

खुद से चलने लगे मशीन
  11  2  112   12  121     = 15
करने लगे विचार
  112  12  121                = 11  =>26
स्मार्ट हो गए टेलीफोन
 21    2   12   2221         = 15
लोग हुये लाचार
21   12   221                  = 11  =>26
पैदा होते सीख रहे
22   22    21   12            =  14
इंटरनेट चलाना 
21121   122                   = 12  =>26

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मनीष पाण्डेय, "मनु"
लक्सेम्बर्ग गुरुवार १८ जून २०२०

गुरुवार, 18 जून 2020

देश द्रोही

देश द्रोही
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आज जब
चुनी हुई
सरकार के कारिंदे

अपने ही देश के
नागरिकों को
ठहराते हैं
देश द्रोही


और भर देते हैं
जेल में


सिर्फ इसलिए कि
उन्होंने पूछे
कुछ सवाल


और
उठाये कुछ मुद्दे
जो दिखाते हैं
आईना


तो फिर
फिर सोचती होगी
ब्रितानी फ़ौज के
अफसरों  की आत्मायें


कि हमने
किया क्या गलत
किसी पराये देश के
गुलामों को


जेलों में भरकर
और गोलियों से भून

जो कर रहे थे
खुला विद्रोह
राज सत्ता के विरूद्ध
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मनीष पाण्डेय, "मनु"
लक्सेम्बर्ग गुरुवार १८ जून २०२०

शुक्रवार, 12 जून 2020

व्हाट्स एप ग्रुप की सदस्ता

व्हाट्स एप ग्रुप की सदस्ता
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कोई मुझे भी ग्रुप से निकाल दे, अनूप दादा बन जाऊँ
बेकार की बातों से फुर्सत हो के, कविता में ध्यान लगाऊँ

किसी और की फारवर्ड नहीं, अपनी कविता लिखूंगा
कविताई पे दूंगा ध्यान, और कुछ नया सीखूंगा

गीत गजल और नवगीत, सब को थोड़ा और समझूंगा
बड़े बड़ों ने जो लिक्खा है, उसका थोड़ा और पढूंगा

थोड़ी समझ बढ़ जाये तो, अच्छी कविता लिख पाऊँ
कोई मुझे भी ग्रुप से निकाल दे, अनूप दादा बन जाऊँ

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मनीष  पाण्डेय "मनु "
लक्सेम्बर्ग, शुक्रवार १२-जून २०२० 

बुधवार, 10 जून 2020

मैं स्वास नहीं ले सकता हूँ

मैं स्वास नहीं ले सकता हूँ
मैं स्वास नहीं ले सकता हूँ

क्यों ऐसे तुम मेरी गर्दन
अपने घुटनों में जकड़े हो
तुम जैसा ही मानव हूँ मैं
क्यों बाँध मुझे यूँ पकड़े हो
तुम तो वर्दी में आये हो
प्रतिकार नहीं दे सकता हूँ

जाने दो मुझको घर मेरे
इक बेटी राह निहारे है
हाँ छोटा सा घर मेरा है
जो चलता मेरे सहारे है
बाकी हैं मेरे काम बहुत
यूँ  प्राण नहीं दे सकता हूँ

तुम समझ नहीं सकते मुझको
पर कम से कम ये काम करो
मैं जन्मा ही अपराधी हूँ
मत अपयश मेरे नाम करो
पहले ही पीड़ित शोषित हूँ
दुख और नहीं सह सकता हूँ

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मनीष पाण्डेय "मनु"
लक्ज़ेम्बर्ग बुधवार 10 जून 2020 

रविवार, 7 जून 2020

मानव तू केवल कठपुतली - नवगीत

मानव तू केवल  कठपुतली - नवगीत
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कुदरत के
इस रंगमंच का,
मानव
तू केवल
कठपुतली

पहुँच गया है
द्वार चाँद के
बना लिया है
उड़न खटोला
डींग हाँकता
घूम रहा है
आखिर तू ठहरा
बड़बोला
आया एक
विषाणु जिसने
कर दी तेरी
हालत पतली

अगड़े-पिछड़े
भेद ना कोई
देश पड़े हैं
चित चौखाने
किसे बचाएँ
छोड़े किसको
अपने कौन
कौन बेगाने
धंधा-पानी
सब चौपट है
जान बचाना
जंग है असली

जंगल काटे
जल-थल लूटा
किया निसर्ग का
रूप भयंकर
इतराता था
है विकास कह
बन के बैठा
बड़ा सिकंदर
खोदा उस
गड्ढे में गिरके
अकड़न सब
तेरी निकली

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मनीष पाण्डेय "मनु"
लक्ज़ेम्बर्ग, रविवार ७ जून २०२०

शुक्रवार, 5 जून 2020

फर्क


एक हथिनी को 
मार डाला
किसी विक्षिप्त ने
हाय!
वो तो
गर्भिणी थी


अब मचा है
पुरे भारत में
कोलाहल 
और 
सब लगे हैं
उसकी निन्दा में

वैसे ही जैसे
ऑस्ट्रेलिया के
जंगल की आग में
जले अनगिनत
पशु-पक्षियों
के लिए
पीट रहे थे छाती

कपटी इन्सान!
खड़ियाली
आंसू बहाने में
माहिर है

क्या वो सब

जीव नहीं हैं
जिन्हे मारकर
रोज सजाता है
अपने खाने की
थाल?

कोई अपने
उन्माद के लिए
मारता है
तो कोई अपने
स्वाद के लिए

पर मारते तो
दोनों हैं ना?

समझायेगा
कोई मुझे
ऐसे मारने
और वैसे मारने
का फर्क?

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मनीष पाण्डेय "मनु"
लक्सेम्बर्ग, शुक्रवार ०५-जून -२०२०

बुधवार, 3 जून 2020

भारत की माटी

भारत की माटी
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माटी होती है माटी तो
देश की हो या पर-देशी हो
सुरभि सौंधी हवा महकती
बरखा की बूँदें पड़ती जो

पर मेरे भारत की माटी
चन्दन बन माथा चमकाती
दाना, पानी और बिछौना
माँ के जैसे सब कुछ लाती

जिसमें मेरा बीता बचपन
यादों में है वो घर आँगन 
खेले खेल जहाँ हमजोली
उन गलियों में खोया है मन


भारत से तुम जा सकते हो
लेकिन नहीं भुला सकते हो
अपने साँसों में तुम उसकी
खुशबू हरदम पा सकते हो

उस माटी से बना हुआ हूँ
इसीलिए तो जुड़ा हुआ हूँ
फिर से उसमें मिल जाऊँगा
इस आशा में बँधा हुआ हूँ

भारत ही मेरी माँ रहती
वो भी मेरी राहें तकती
बरसों बीते बिछड़े तुमसे
आ जा मेरे बेटे कहती 

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मनीष पाण्डेय "मनु"
लक्ज़ेम्बर्ग, बुधवार 03-जून-2020 




ना था कोई लक्ष्य विशेष
जाने कौन घड़ी थी जिसमें 
निकल चला आने परदेश   

मैटर उठा के लिखता हूँ

कविता तो मैं इधर-उधर से, मैटर उठा के लिखता हूँ
पापा लाईक नहीं करते, छुपके-छुपाके लिखता हूँ

लिखने-कहने जैसा क्या जो, आलरेडी मौजूद नहीं
मेरे जैसे न्यू-कमर्स का, यूँ भी कोई वजूद नहीं
मैं भी किसी से कम नहीं, ये ईगो चढ़ाके लिखता हूँ
कविता तो मैं...

पढ़ने से जादा लिखता, एव्हरी-बडी को सुनाता हूँ,
तुलसीदास से बेटर है, सोच के मैं ईतराता हूँ
ऐरी-गैरी कैसी भी हो, स्टाइल दिखाके लिखता हूँ
कविता तो मैं...

अपने मन-की-बात ही कहना, सिस्टम आज प्रभावी है
छोड़ दो मज़दूरों की बातें, सीजन नहीं चुनावी है
अच्छे से दोनों कानों में, कॉटन लगा के लिखता हूँ
कविता तो मैं...

जिनको नहीं पसंद आ रही, आँखें अपनी कर लें क्लोज़
अच्छी जिनको लग जाए, फ़ॉर्वर्ड करते जाएँ रोज़
दुनिया चाहे दे गाली, मैं स्माइल सजाके लिखता हूँ
कविता तो मैं...

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, मंगलवार ०२-जून-२०२०

कठपुतली - 1

कुदरत के इस रंगमंच का मानव रे तू कठपुतली है

चाँद के दर पे जा पहुंचा, एक बनाके उड़न खटोला
जीत लिया संसार कि जैसे गाल बजाता था बड़बोला
एक विषाणु आया है और देख हुई हालत पतली है
कुदरत के इस रंग मंच का....


जंगल काटे, धरती बाँटी, सागर को भी छान लिया था
उड़े गगन में ऐसे जैसे खुद को ईश्वर मान लिया था
तूने सोचा इत्ते भर से किस्मत तेरी चल निकली है
कुदरत के इस रंग मंच का...


छोटे-मोटे देशों की क्या बड़े-बड़े बेहाल हुये हैं
जहां-तहां बिस्तर पे देखो पड़े-पड़े कंकाल हुये हैं
धंधा पानी चौपट है पर जान बचाना ही असली है
कुदरत के इस रंग मंच का....

सोमवार, 1 जून 2020

सही-ग़लत की बात

जो मानते थे कि में कण कण में भगवान है
उनके लिए फ़र्क़ नहीं था पेड़ है या इंसान है

जो समझते थे उसका ही, चाहे धूप हो या छाँव
वो करते थे नमन रखने से पहले धरती में पाँव

तुम भी मैं और मैं भी तुम तो फ़र्क़ क्या रह जाता है
मानने-मनाने के कि लिए तर्क क्या रह जाता है

कहने को कह देना भी कोई कहने लायक बात है
ऐसे मुँह देखी करके तो कुछ ना आता हाथ है

कहते थे वैसा करते थे जैसे संत कबीर
रहिमन के दोहे बतलाते रखना थोड़ा नीर

नास्तिक नहीं मगर मैं डरता हूँ इंसान से
इनकी पूजा करनी पड़ती पहले उस भगवान से

अपनी सुविधा से जैसे ये अदा बदल लेते हैं
छोड़ें फटे-पुराने कपड़े वैसे ख़ुदा बदल लेते हैं

छोटी मुँह से बात बड़ी है,  करना मुझको माफ़
ऐसा क्यों है बतलाना ये करके दिल को साफ़

बात वही सुनना चाहे जो उसके मन को भाय
सही-ग़लत की बात कहो, तो हमको क्यों गरियाय

जितनी आसानी से हम लिख जाते हैं हर बात
उसको पालन करना क्यों न रहता हमको याद
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार ०१-जून-२०२०