बुधवार, 31 मार्च 2021

संस्कारों की दुहाई

मेरी पत्नी के कपड़ों  की 
लम्बाई नापने से पहले 
अपने नियत की 
सच्चाई नाप कर लाना 

मेरी बहन के फटे जींस 
पर छींटा कसी करने से पहले 
अपनी दकियानूसी सोच 
के उधड़े 
सील कर आना 

मेरे साथी के खुले कपडों
को मुद्दा बनाने के पहले 
जरा बताना मुझे 
कि तुम्हारा इरादा क्या है?

संस्कारों की 
खोखली दुहाई देने से पहले
बताना जरा 
तुमने उनका क्या किया 
जो करते हैं 
इंसानियत की हदें पार?

तुमको क्यों हर बात पर 
दिख जाती है गलतियों 
लड़किओं में 
और खुद नहीं देखते आइना?


बहार

फिर से खिलने लगी हैं 
कलियाँ डालिओं पर
निकल रहे हैं
नए पत्ते
पीले-हरे से रंगों के 

फिजा में बहार 
बस आने को है 
हर साल की तरह 

इन्हे फर्क नहीं पड़ता
इस बात का 

चाहे वे बच्चे
बड़े हो गए हों 
जो खेलते थे 
इन पेड़ों की
डालियों से लटकर 

या अब वो माली 
जीता नहीं 
जिसने उन्हें पौधे से 
पेड़ बनाया 
अपनी देख-रेख में 

इस बात से भी नहीं 
कि कोई ले जायेगा 
इनके फूल तोड़कर 

सजाने को 
किसी के बालों में,
किसी मेज के गुलदान में
किसी मंदिर-मस्जिद, 
गुरूद्वारे-गिरजा घर में 
या कहीं और 

नहीं ले गए तो भी
ये फूल यूँ भी गिर जायेंगे 
सूख या गलकर 

फर्क नहीं पड़ता इन्हें 
कि कोई निहारे और 
कैद करे अनगिनत 
चित्रों में 
या कोई हड़बड़ी में 
निकल जाये सामने से 
बिना निहारे या सराहे 


वे तो बस खिलते हैं 
कि बस उन्हें 
खिलना ही आता 
बहारों को लाने 
फ़िज़ाओं में 

शनिवार, 13 मार्च 2021

सड़क

ये सड़क यहीं है
दशकों से,
न कहीं जाती है 
और न बदलती है 

कभी किसी को
भटकाती है
तो किसी को 
सही राह ले आती है 
 ये सड़क 

कभी तो किसी
नई नवेली दुल्हन को 
ले जाती है पिया के घर 
तो कभी बिटिया को 
त्योहारों में 
लाती है वापस पीहर
ये सड़क 

सुनती है 
आते जाते लोगों के
दुख-दर्द की दास्तान
और उनके हँसी ठट्टों में
खिलखिलाती भी है 
ये सड़क 

जाने कितनों को 
पहुँचती है 
उनके मंजिलों तक 
ये सड़क 

जोड़ती है 
दूर-दराज में रहने वालों को 
और उनके जीवन को
आसान बनाती है 
खुद बेजान सी 
ये सड़क 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, शनिवार 13-मार्च-2021

सोमवार, 8 मार्च 2021

बदलाव

बदलाव
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बदलने लगे हैं
मायने 
हर बात के,

बदल रहे हैं
हमारे शर्मो-लिहाज़ के
पैमाने,

हम क्या
खाते-पहनते हैं-
और हमारे
उठने-बैठने के तौर तरीक़े
बदल रहे हैं

कोई तैयार नहीं
ज़रा सुन-सह लेने को

हर किसी को
बड़ी जल्दी है 
सब हासिल कर लेने की,

राम जाने
कैसा समय आने वाला है?

कहते थे
मेरे परदादा 
गाँव की पंचायत में
किसी विवाद को सुलझाते

ऐसा
मेरे दादा जी
बताते थे

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार ०८-मार्च-२०२१

सूरज

सूरज
तुम तो
हज़ारों करोड़ों सालों से
रोज आते हो ना?

तुमने तो सब देखा है
अपनी आँखों से,
फिर क्यों भला
कभी कुछ नहीं कहते
कुछ नहीं करते?
क्यों अंदर-अंदर ही
जलते रहते हो?

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, सोमवार 08-मार्च-2021

रविवार, 7 मार्च 2021

बादल

अरे! बादल
तुम्हें किस बात का
घमण्ड है भला?
क्यों इतना गरजते हो?
क्यों इतराते हो और 
भटकते रहते हो इधर उधर?

तुम तो बस 
एक अदना से
मुलाजिम हो समंदर के,
जिसने भेजा है तुम्हें-
ताल-तलैया,
खेत-खलिहान
और पहाड़ों को लौटाने
जो कभी लिया उसने
नदियों के रास्ते
उधार का पानी 


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अरे! बादल
ये क्या गुड़गुड़ की 
आवाज आ रही है
तुम्हारे पेट से?

क्या आज फिर
खाली पेट ही 
निकल पड़े हो
काम पर जाने के लिए?

या फिर लौट कर 
आ रहे हो
किसी लंगर से 
बिना खाये-पीये?

जो भी हो,
और कुछ नहीं तो
दो घूंट पानी पी लो
लेकिन
किसी को नहीं बताना
अपने मन का भेद

यहाँ लोग 
तुम्हारी मजबूरी की दास्तान
सुन तो लेंगे
बड़े चाव से
पर कोई आएगा नहीं 
मदद के लिए

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अरे! बादल
ये कहाँ भटक रहे हो 
शाम ढले?

घर नहीं जाना?

जानते नहीं 
लोग बातें बनाने लगेंगे

तुम्हें आवारा, निकक्मा 
और लापरवाह कहेंगे

नदी और समुंदर 
को दोष देंगे कि-
तुम्हें नहीं दिये अच्छे संस्कार 

जाओ लौट जाओ
घर को

यदि निकले हो
सफर में 
कहीं और जाने 
तो बिता लो रात  
कहीं किसी ठौर

कल सबेरे चले जाना
दिन निकाल आए
तब 

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, रविवार 07-मार्च-2021

एक प्याली कविता

अंतर्मन के
विचारों को 
कागज-कलम की
केतली पर चढ़ाई है,
थोड़ा उबाल आने दीजिये
फिर अपने लहज़े के 
मिठास के साथ
एक प्याली कविता 
आपको भी दूँगा 
चुस्कियों के लिए 


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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 07-मार्च-2021