रविवार, 7 मार्च 2021

बादल

अरे! बादल
तुम्हें किस बात का
घमण्ड है भला?
क्यों इतना गरजते हो?
क्यों इतराते हो और 
भटकते रहते हो इधर उधर?

तुम तो बस 
एक अदना से
मुलाजिम हो समंदर के,
जिसने भेजा है तुम्हें-
ताल-तलैया,
खेत-खलिहान
और पहाड़ों को लौटाने
जो कभी लिया उसने
नदियों के रास्ते
उधार का पानी 


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अरे! बादल
ये क्या गुड़गुड़ की 
आवाज आ रही है
तुम्हारे पेट से?

क्या आज फिर
खाली पेट ही 
निकल पड़े हो
काम पर जाने के लिए?

या फिर लौट कर 
आ रहे हो
किसी लंगर से 
बिना खाये-पीये?

जो भी हो,
और कुछ नहीं तो
दो घूंट पानी पी लो
लेकिन
किसी को नहीं बताना
अपने मन का भेद

यहाँ लोग 
तुम्हारी मजबूरी की दास्तान
सुन तो लेंगे
बड़े चाव से
पर कोई आएगा नहीं 
मदद के लिए

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अरे! बादल
ये कहाँ भटक रहे हो 
शाम ढले?

घर नहीं जाना?

जानते नहीं 
लोग बातें बनाने लगेंगे

तुम्हें आवारा, निकक्मा 
और लापरवाह कहेंगे

नदी और समुंदर 
को दोष देंगे कि-
तुम्हें नहीं दिये अच्छे संस्कार 

जाओ लौट जाओ
घर को

यदि निकले हो
सफर में 
कहीं और जाने 
तो बिता लो रात  
कहीं किसी ठौर

कल सबेरे चले जाना
दिन निकाल आए
तब 

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, रविवार 07-मार्च-2021

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