सोमवार, 28 सितंबर 2020

हेंड्रिक मार्समान और हॉलैंड की स्मृतियाँ

सन् 1999 में नीदरलैंड्स की दो संस्थाओं "पोएट्री इंटरनेशनल" और "आर.एन.डब्लू।"  ने एक सर्वेक्षण के जरिए बीसवीं सदी की महान डच कविताओं का चयन किया उसमें से एक थी हेंडरिक मार्समान की लिखी कविता "हेरिनरिंग आन होलाण्ड" जिसके शीर्षक का हिंदी अनुवाद होता है "हॉलैंड की स्मृतियाँ"| 

हेंडरिक मार्समान बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण डच कवियों में से एक थे| वे पेशे से वकील लेकिन उन्होंने ने साहित्य के प्रति समर्पित भावना रखी और वे कवि होने के साथ ही प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच एक प्रभावशाली आलोचक और संपादक बने। उनके लेखन में परम्परागत यूरोपीय संस्कृति के प्रति एक अनूठा आकर्षक दिखता है पर उनकी शैली मुखर और स्वतंत्र सोच लिए होती थी| सन् 1918 में उनकी पहली कविता स्ट्रोमिंघेन (Stroomingen) नाम की में छपी और 1920 उनका पहला कविता संग्रह छपा| सन् 1925 में De Vrije bladen (“मुक्त पत्रकारिता”) के संपादक बने और प्रभावशाली युवा साहित्यकारों में शुमार हुए| मात्र 20-22  साल के लेखन के में उन्होंने 27 किताबें लिखीं जिनमें से 3 उनके मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई| उनकी लिखी कविता नीदरलैंड्स के "लाइडेन" और जर्मनी के की राजधानी "बर्लिन" में दीवार पर उकेरी गयी हैं| 

मार्समान का जन्म 30-सितम्बर-1899 को 'जेइस्त' नाम के एक छोटे से कसबे में हुआ जो निदरलैण्ड्स के मध्य क्षेत्र के एक प्रमुख शहर उत्रेख्त के पूर्वी छोर में बसा है| जो लोग हॉलैंड के भूगोल को नहीं जानते उनके लिए यह कहना उचित होगा कि उनकी जन्मस्थली एम्स्टर्डम से कुछ 60 किमी की दूरी पर है| 

'हेंडरिक मार्समान' नाम से मेरा परिचय तब हुआ जब मैंने एम्स्टर्डम से 30 किमी दूर एक शहर "अल्मेर" में रहने गया| भारत की तरह ही, निदरलैण्ड्स में भी शहर के हिस्सों को किसी न बस्ती के नाम से जानते हैं| अल्मेर शहर के जिस हिस्से में मेरा घर है उसका नाम है- "लिटरेचर वाइक" जिसे हिंदी में "साहित्यनगर" के जैसा कह सकते हैं| विशेष बात यह कि इस नाम के अनुरूप हमारे मुहल्ले के सारी गलियों के नाम दुनिया भर के और विशेषतः डच या यूरोपियन साहित्यकारों के नाम पर रखे गए हैं| आप समझ ही गए होंगे कि हमारी गली का नाम उनके ही नाम पर रखा गया है- "हेंडरिक मार्समानस्त्रात"| 

साहित्य के प्रति प्रेम ने मुझे उनके नाम और काम के विषय में खोजने के लिए प्रेरित किया और तब मुझे उनकी अमर कविता "हॉलैंड की स्मृतियाँ" के विषय में पता चला| यह कविता उन्होंने १९३६ में लिखी थी जब वो अपने लेखन और व्यवसाय के चलते हॉलैंड से निकल कर यूरोप के अन्य देशों में रह रहे थे| 

उनकी ये कविता कई भाषाओँ में अनुवादित हुई है जिनमें से एक है आयरिश कवि 'माइकल लोंगले' द्वारा सन् 1939 में किया गया अंग्रेजी अनुवाद| मैंने उसी कालजयी कविता का हिन्दी अनुवाद करने का प्रयास किया है| हेंडरिक मार्समान लिखते हैं: 

हॉलैंड की याद आने से 
उभरते हैं दृश्य 
उसकी चौड़ी नदियों के
जो बहती हैं तराईयों में
अनंत तक, 

[नीदरलैंड का अधिकांश भाग समुद्र तल से नीचे राइन-मूस-स्कैल्ट के मुहाने पर बसा है और पुरे देश में बड़ी नदियों की जाल बिछी हुई है| मार्समान इसे ही याद करते हैं इस पद में ]

अनमने खड़े
विचित्र से पतले
चिनारों की 
लम्बी कतारें
और उन पर छायी
कोहरे की परतें 
जो बिखरी हुई हैं 
क्षितिज पार तक,

[पतले और ऊँचे चिनारों से पूरा देश भरा हुआ है और ऋतु परिवर्तन के समय अकसर कोहरे से भरा मौसम होता है सुबह के समय जिसका वर्णन मिलता है इस पद में]

दूर कहीं दिखाई पड़ते
छोटे-छोटे निर्माणों 
की झलकियाँ 
जो फैली हैं
सुदूर ग्रामीण प्रदेशों तक,

[आज भी जब आप महामार्ग से जाएं तो दूर दूर में छोटे-छोटे भवन आदि दिख जाते हैं फिर यह कविता तो 1936 की है तो अवश्य तब काम ही घर रहे होंगे जो दूर दूर में बनाये गए होंगे ]

पेड़ों के झुरमुट,
गाँव और बस्तियां,
ठिंगने से मीनार,
भव्य चर्च और
उनकी आहातों में लगे
एल्म के पेड़
जो उसकी शोभा  
को और बढ़ाते हैं,

[बाकि पश्चिमी यूरोप के देशों के सामान ही नीदरलैंड्स में भी हर शहर में चर्च हैं और बड़े शहरों जैसे देन बोश, मास्त्रिक, हेग आदि शहरों में भव्य चर्च आज भी देखते ही बनते हैं ]

झुका हुआ आसमान,
और कुहासे के
बीच से झांकता 
धूसर मोती सा
दिखाई देता सूरज,
जैसे मोतिओं का राजा*,

[मार्समान ने बादलों से ढके आसमान को झुके हुए आसमान की संज्ञा दी और कुहासे से झाँकते सूरज के धूसर रंग को भी मोती सा लिखा है| सर्दी के मौसम में यह मनोरम दृश्य हमेशा ही देखे पड़ती है] 

और बस्ती-बस्ती में
पानी की
चेतावनी भरी आवाजें
शायद किसी विपत्ति
की आहट से 
डरी-सहमी हुई| 

[मार्समान ने जब यह कविता लिखी वो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच का समय था| उन्होंने इन पंक्तियों में पानी के थपेडों को तब के उहापोह से जोड़कर बहुत ही खूबसूरती से चित्रित किया है]

* उन्होंने जननी लिखा है

इस कविता में अपनी मातृभूमि की स्मृतियों के साथ भविष्य के प्रति मार्समान के मन में चल रहे उहापोह की स्पष्ट झलक मिलती है जो उनके साहित्य में प्रमुखता से परिलक्षित रही| और उनकी कुशंकाओं के अनुरूप ही उनकी मृत्यु केवल 40 वर्ष की आयु में 20 और 21-जून-1940 की अभागी रात को फ़्रांस से इंग्लैंड की समुद्री यात्रा के दौरान "बिस्के की खाड़ी" में हुई| 

तब तक द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और वे "एस एस बेरेनिस" नाम जहाज में सवार होकर फ़्रांस से भाग कर इंग्लैंड शरण लेने जा रहे थे| उस जहाज में 47 लोग सवार थे जिसमें उनकी पत्नी भी थी जो भाग्य से बच निकले ८ लोगों में से एक थी| उस जहाज के डूबने के विषय में दो सम्भावित कारन बताये जाते हैं - या तो उसके इंजिन में कुछ तकनिकी खराबी के कारन विस्फोट हुआ या कि जर्मन युद्धपोत का निशाना बन गया जिसने उस जहाज को एक सामरिक जहाज समझकर मार गिराया| कारन चाहे जो भी पर इस दुर्घटना ने यूरोप के इस महान युवा साहित्यकार को असमय ही हमसे छीन लिया| 

उनकी पहली किताब छपने की शताब्दी बीत जाने के बाद भी हेंडरिक मार्समान अपनी कविताओं और साहित्य के बलबूते अपने पाठकों और प्रशंसकों के दिलों में हमेशा हमेशा अमर रहेंगे| 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 27-सितंबर-2020

स्रोत:

१) http://4umi.com/marsman/herinnering
२) https://en.wikipedia.org/wiki/Hendrik_Marsman
३) https://web.archive.org/web/20100622000914/http://www.nrcboeken.nl/recensie/denkend-aan-komrij
४) https://www.dbnl.nl/auteurs/auteur.php?id=mars005
५) https://www.britannica.com/biography/Hendrik-Marsman

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

विद्रोही

साहित्यकार तो अपने आप में
सत्ता का शाश्वत विपक्ष होता है
आँखे मूँद भाण्ड बन जाए तो
इतिहास खून के आंसू रोता  है 

कवि कुमार विश्वास के मुँह
मैंने कहीं कभी सुनी ये बात
थी अच्छी लगी दिल को मेरे
इसलिए रह गयी मुझे याद 

यूँ मैं भी खुद को अकसर
विपक्ष में ही खड़ा पाता हूँ
भीड़ से अलग चलता हूँ
सो "विद्रोही" कहलाता हूँ 

कांग्रेस ने बहुत दिनों तक
यही शातिर चाल चला है
वर्ग विशेष की तुष्टि कर
सचमुच में देश को छला है 

पर पधारे हैं जो अब की बार 
उनकी भी तो छटाएँ अलग हैं
डूबे अर्थव्यवस्था, मरे मजदूर
पर दोष न लगे पुरे सजग हैं 

जी ऐसा नहीं  है कि मैं सिर्फ
दूसरों पर ही उंगली उठाता हूँ
खुद की समीक्षा भी करता हूँ
तभी रात बेफिक्र सो जाता हूँ

सोमवार, 21 सितंबर 2020

कहावतों की उलझन

कहावतों की उलझन 
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कहावतें भी कभी-कभी 
बात समझाने के बदले 
उलझन बढ़ाते हैं,
आप नही मानते 
तो चलिये
आपको 
कुछ कहावतें
सुनाते हैं| 


जो कहते हैं 
ईश्वर है
सबका रख वाला,
तो फिर क्यों कहते हैं 
भूखे भजन 
न होए गोपाला?  


जब काजल की 
कोठरी में जाने से 
हाथ
हो जाते हैं काले,
तो साँपों से लदे
चन्दन 
की लकड़ी 
क्यों नहीं बनते 
विष वाले?


वो कहते हैं 
मीठा बोलो 
और न दुखाओ 
दिल किसी का,
तो फिर
क्यों कहते हैं 
भावनाओं को देखो 
और भूल जाओ 
उसके शब्द
और तरीका? 


जो कहते हैं 
ऊपर वाला 
सब देखता है भाई, 
तो फिर क्यों कहा 
समरथ को 
नहीं दोष गोसांई? 


अजी छोड़िए,
ये उलाहने  भी 
अपनी सुविधा से
बनाए जाते हैं,
जहाँ जैसा हो मौका
वैसे तीर
चलाये जाते हैं|


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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार 21-सितंबर-2020

रविवार, 20 सितंबर 2020

कुछ दोहे

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बिटिया घर से हो विदा

अजब बनी यह रीत

माँ-बाबा कैसे सहें

बिछुड़े उनकी प्रीत


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गुरु वंदना में पहला दोहा:


महिमा वेद-पुराण भी, जिनकी करें बखान

गुरु के बिन मिलता नहीं, जग में कोई ज्ञान


श्याम नाम मीरा भजे, 

सबरी जपती राम

वे ही सागर प्रेम के,

वे ही पूरन काम 


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रक्षाबंधन के लिए मेरा प्रयास:



रेशम डोरी प्यार की, बाँध कलाई आज

भाई से बहना कहे, रखना इसकी लाज


और


रेशम प्रेम प्यार का, बँधा कलाई आज

भाई को ऐसा लगे, मिला स्वर्ग का राज

सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी?

 हिन्दी?
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हिन्दी तो 
उस गरीब माँ की तरह
अभागन हो गयी है 
जिसके बच्चे
पढ़ लिख कर 
जब ऊँचे रहन सहन का
हिस्सा बन जाते हैं,
फिर तो सबके सामने 
अपने माँ-बाप के 
पैर छूना तो दूर 
उनसे बात करने से भी
कतराते हैं| 

 
हिन्दी? 
हिन्दी तो
उस गाँधीवाद के समान 
एक ढकोसला
बन गया है
जिसके गुण तो
बढ़ाचढ़ा कर
सभी गाते हैं
वाह-वाही
लूटने के लिए,
लेकिन अपनाता
कोई नहीं| 


हिन्दी?
हिन्दी तो
सनातन धर्म के 
उन मूल्यों के समान
हो गयी है,
जिसके नाम पर 
विश्व-गुरु होने की 
बात तो सभी करते हैं
लेकिन 
उसके परम्पराओं और
संस्कारों को
पुराने और
दकियानूसी सोच का
हिस्सा मानकर
उसका पालन 
खुद नहीं करते| 


यदि ऐसा नहीं है
तो क्यों
पितृपक्ष में 
किये जाने वाले
मातृ-नवमी के 
वार्षिक तर्पण के समान 
बस एक दिन 
"हिन्दी दिवस" मनाकर 
हम अपने कर्तव्यों 
की पूर्ति मान लेते हैं? 


क्यों हिन्दी
हमारे रोजमर्रा 
का हिस्सा नहीं है?
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मनीष पाण्डेय “मनु” लक्सम्बर्ग,
हिन्दी दिवस सोमवार 14-सितंबर-2020

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

ये तो चीटिंग है

ये तो सरासर चीटिंग है विधाता
भला है कौन ऐसे रिश्ते निभाता 


तुमने कहा था तुम रक्षक हो मेरे
छाया तुम्हारी होगी साँझ सवेरे 
बादल दुखों के न कभी मुझको घेरे
हमेशा रहोगे तुम जो साथ मेरे 
कैसे तो फिर यूँ मुसीबत है आता
ये तो सरासर चीटिंग है विधाता


पत्ता ना डोले बिना तेरी मर्जी
फिर क्यों भला छाई इतनी खुदगर्जी
लोगों को ठगते बने बाबा फर्जी
सुनो तो हमारी लगाते हैं अर्जी
लालच में आदमी कुछ भी कर जाता
ये तो सरासर चीटिंग है विधाता


दिया दे करम जो मेरे हाथ में है
क्यों परिणाम भी फिर नहीं साथ में है
मेहनत गरीबों की दिन रात में है
भरे जेब सेठों की हर बात में है 
करें भी तो क्या कुछ समझ नहीं आता 
ये तो सरासर चीटिंग है विधाता


भलाई से हमेशा होता ना भला
सच्चाई तो जाने किस कोने डला
चलके भी राह सीधे नहीं कुछ मिला
बस जीते वही जो दांव उलटे चला
हेल्दी खाने से स्वाद नहीं आता
ये तो सरासर चीटिंग है विधाता

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, गुरुवार 03-सितंबर-2020