रविवार, 30 मई 2021

काजल के निशान - 1

यह क्या?
तुमने तो 
मेरे शर्ट की बाँह में
काजल लगा दिया

अभी-अभी तो लिया था
और तुमने 
खराब कर दिया
काजल लगा कर

पता भी है?
काजल के निशान 
जाते नहीं है 

सफ़ेद कपड़े से तो 
बिलकुल भी
नहीं जाते 

अब इसे पहनकर 
दफ्तर, बाजार 
या कहीं और नहीं जा सकता 

तुम भी ना! 

——————————-
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
लक्सेम्बर्ग, रविवार ३० मई २०२१

काजल के निशान - 2

बिछुड़ते हुए 
जब तुम 
मेरे सीने से लिपट
रोने लगी थी 
और मैंने तुम्हें
अपनी बाँहों में भर लिया था 

तभी शायद 
मेरी कमीज की बाँह पर 
लग गया  
तुम्हारी भीगी आँखों का 
काजल

उन्हीं आँखों का काजल
जिन्हें देख मैं 
बावरा हुआ जाता था

पता है
मेरी कमीज की बाँह पर 
वो निशान आज भी है 

बहुत कोशिश की 
छुड़ाने की 
उस निशान को 

साबुन रगड़े 
निम्बू के रस लगाए
और ना जाने 
क्या-क्या जतन किये 
पर निशान गया नहीं

बिलकुल वैसे ही 
जैसे मेरे दिल में 
तुम्हारा प्यार की छाप
अमिट है 

——————————-
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
लक्सेम्बर्ग, रविवार ३० मई २०२१

सोमवार, 24 मई 2021

दो अँजुरी पानी

आजकल मैं भारत की राजधानी नई दिल्ली से कुछ 6300 किमी दूर, यूरोप के एक प्रतिष्ठित शहर लक्सेम्बर्ग में अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ रहता हूँ| यह शहर इस देश की राजधानी भी है और इस देश का नाम भी लक्सेम्बर्ग ही है| वैसे तो यह देश बहुत छोटा सा है जिसका कुल भू-भाग 2586 वर्ग किमी है (भारत के सबसे छोटे राज्य गोवा का क्षेत्रफल 3207 वर्ग किमी है) और जनसँख्या लगभग 6 लाख जिसमें आधे तो विदेशी है (दूसरे यूरोपीय देशों और अन्य देशों के प्रविसियों को मिलाकर) लेकिन इस देश की स्थिति बहुत मज़बूत है| 

जिन्होंने ने यूरोप की यात्रा की होगी उन्होंने वीसा लेते हुए शायद एक बात पर ध्यान दिया हो कि यूरोप के वीसा को "शेंगेन वीसा" (https://www.schengenvisainfo.com/) कहते हैं जो उन्हें सभी 26 यूरोपीय देश में बिना रोक-टोक के आने की छूट देता है| इस वीसा में आइसलैंड,नार्वे और स्विट्ज़रलैंड जैसे 19 अन्य देशों में भी जाने की छूट है जो सीधे-सीधे "यूरोपीय संघ" के भाग नहीं हैं| "शेंगेन" वास्तव में लक्सेम्बर्ग के छोटे से एक गाँव का नाम जो मेरे घर से कुछ 4० किमी की दुरी पर है| 14-जून-1985 को इसी गांव में हुए एक सम्मलेन में बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, लक्सेम्बर्ग और नेदरलॅंड्स ने सबसे पहली बार एक व्यापारिक और राजनैतिक संगठन बनाने की संधि पर दस्तखत किये थे| उस संधि का नाम "शेंगेन समझौता" पड़ा और यही संगठन आगे चलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली बहुदेषीय संगठनों में से एक "यूरोपीय संघ" के नाम से जाना गया जिसमें यूरोप के कुल 26 देशों की सदस्यता है|  

लक्सेम्बर्ग शहर में महानगर पालिका ने शहर के बीचो-बिच एक बड़ा उद्यान बनाया है जो कि तीन हिस्सों में बंटा हुआ है और इसकी लम्बाई लगभग १ किमी की है| इस उद्यान के बीच के भाग में बच्चों के खेलने की जगह है| कई तरह के झूले, फिसल-पट्टियां और कई कृत्रिम समुद्र तट पर एक पुराने जहाज का ढांचा बना है| इस उद्यान में पानी से खेलने की जगह भी है जिसमें पम्प से पानी बहता है और जगह-जगह पर भरता हैं जहाँ बच्चे उछल कूद करते हैं|  उद्यान में कई हैंड-पम्प भी लगे हैं जिसके साथ बच्चे खेलते हैं| यहाँ प्रकार से जमीन से निकले पानी साफ और सुरक्षित नहीं माना जाता है इसलिए सरकार ने साफ शब्दों में सन्देश लिखा है कि पानी पीने योग्य नहीं है| गर्मी के समय में बच्चे उनमें से पानी निकालते हैं और छोटे बढे गड्ढों में भरे पानी से भीगते-भिगाते हुए खेलते हैं| मेरा छोटा बेटा अदित इस उद्यान के पानी और झूले आदि में बहुत प्रसन्न होकर खेलता है| 




उद्यान के इस हिस्से में दक्षिण-पश्चिमी छोर पर महात्मा गाँधी की भी एक अर्ध प्रतिमा लगी हुई है| इस काँस्य प्रतिमा को पद्म भूषण श्री अमर नाथ शहगल जी ने बनाया था| श्री सहगल भारत के जाने-माने मूर्तिकार और चित्रकार थे और जब वे 1965 में पेरिस में किसी आधुनिक मूर्ति कला के कार्यक्रम में आये तब उनका संपर्क लक्सेम्बर्ग के तात्कालीन प्रधानमंत्री से  हुआ था| बाद में उन्हें महात्मा गाँधी की एक मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी दी गई जिसे 1973 में लक्सेम्बर्ग शहर के इस प्रमुख उद्यान में स्थापित किया गया| बाद में लक्सेम्बर्ग के प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने देश में स्टूडियो खोलने और रहने का निमंत्रण दिया तो सहगल जी 1979 से 2004 तक लक्सेम्बर्ग में रहे| बाद में 2004 में वे भारत चले गए और 28-दिसम्बर-2007 को 85 वर्ष की उम्र में उनका लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हुआ| जी हाँ ये वही अमर नाथ सहगल जी हैं जिन्होंने दिल्ली के विज्ञान भवन की प्रतिकृति के रूप में एक कांस्य-भीति चित्र (मुराल) बनाया था और उसके हटाए जाने पर सरकार के विरुद्ध केस दर्ज करा दिया था| दिल्ली हाईकोर्ट ने उनके हक़ में फैसला दिया था और मुवावजे की राशि के साथ-साथ उस भीति-चित्र का पूर्ण स्वामित्व भी सहगल जी के नाम किया था| 







इस प्रतिमा की एक खाशियत यह है कि इसमें गाँधी जी ने उनकी चिर परिचित गोल कांच वाला चस्मा नहीं पहना है| उनकी जन्म जयंती के १५०वी वर्षगांठ पर लक्सेम्बर्ग ने उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था| गाँधी जी के सबसे छोटे बेटे देवदास की पुत्री तारा गाँधी भट्टाचार्जी इस शुभ अवसर पर लक्सेम्बर्ग में कार्यक्रम में उपस्थित थीं| उन्होंने गाँधी जी प्रतिमा को देख कर इसे महात्मा गांधी की बिना चश्मे वाली एक दुर्लभ मूर्ति बताया था। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें अंदाजा नहीं मूर्तिकार ने बापू किस उम्र को उकेरने का प्रयास लेकिन वे इस प्रतिमा में कम उम्र के लगते हैं पर उस चेहरे मोहरे से बहुत मिलता जुलता है जो मुझे याद है| 



मैं सुबह या शाम को जब सैर पर जाता हूँ तो लगभग हर दिन इस प्रतिमा के सामने से निकलता हूँ| गाँधी जी प्रतिमा को देख थोड़ा रूक जाता हूँ और दो पल के लिए अपनी आँखें मूँद कर सर झुका लेता हूँ| प्रतिमा है तो वे तो कुछ कहते नहीं और मैं भी कुछ नहींबोलता, न मुँह से और न मन में, बस मौन ही नमन कर के आगे बढ़ जाता हूँ| हमलोग अक्सर इस प्रतिमा के पास आते हैं और मेरे दोनों बच्चे उनकी प्रतिमा के पास समय बिताते हैं|




आज (24 मई 2021) की सुबह सैर से लौटते हुए फिर से प्रतिमा के सामने से आना हुआ| प्रतिमा पर नज़र पड़ी तो देखा कि किसी ने उन्हें "मास्क" पहना दिया था| ऐसा लगा जैसे लोगों को आत्म-अनुशासन की सीख देने के लिए गाँधी जी ने भी "मास्क" लगा लिया हो| वैसे भी वे किसी और को ऐसी कोई सीख देते नहीं थे जिसका पालन वे खुद नहीं करते थे| लेकिन "मास्क" का रंग काला था तो पता नहीं क्यों मन में ऐसा बोध हुआ जैसे कि ये उनके सत्याग्रह का एक रूप है जिसमें वे दुनिया भर के सत्ताधीशों और उनसे भी बढ़कर जनता की स्वयं के अनुशासन-हीनता के प्रति अपनी असहमति के लिए अनसन कर रहे हों| मैंने पढ़ा है कि वे न केवल अंगेजी सरकार के विरुद्ध वरन अपनों के किसी काम से असहमत होते थे तब भी वे मौन और उपवास रखकर सत्याग्रह करने बैठ जाते थे| लगा शायद आज भी वे वैसा ही कुछ कह रहे हों कि स्वछता और स्वालम्बन हम सबका कर्त्तव्य है| यदि हम स्वयं ही उदासीन और असावधान हो जाएँ तो ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकता| 




इसी उधेड़-बुन में मेरी नज़र पड़ी कि उनकी प्रतिमा पर किसी चिड़िया का अपशिस्ट लग गया है| अब चिड़िया को कहाँ पता है कि यहाँ गाँधी जी की प्रतिमा लगी है जो जरा आगे पीछे देख कर काम करे| और जब उनके अपने ही देश में सबसे समझदार प्राणी होकर भी लोग ही उन पर पलीता लगाने से नहीं चूकते तो फिर उस बेचारे पंछी का क्या कहें? फिर ख्याल आया कि ऐसा दूसरों पर आरोप लगाना बहुत ही आसान है, खुद एक गिरहबान में झांक कर देखो तो पता चले की खुद की करनी कैसी है| और फिर दुनिया भर में ऐसे खुले में प्रतिमा लगती है तो उस पर मैला-कचरा तो होता ही है चाहे वह किसी व्यक्ति की हो या किसी देवी-देवता की प्रतिमा हो| मन में ख्याल आया कि क्यों न मैं इस प्रतिमा को धो पोंछ कर साफ कर दूँ? 

मूर्ति को साफ़ करने का विचार तो अच्छा था पर ये काम हो कैसे? मेरे पास कोई पानी की बोतल या कोई बर्तन तो था नहीं तो पानी लाऊंगा कैसे? सोचा घर तो पास ही है तो क्यों ना जाकर एक बाल्टी, गिलास या कोई बर्तन लाकर साफ कर दूँ| फिर खुद को सचेत किया कि नहीं ये सही नहीं है, घर जाते ही किसी न किसी बहाने आलस करूँगा और लौटकर नहीं आऊंगा| मैं कोई बड़ा देशभक्त और अनुशासित व्यक्ति नहीं हूँ इसलिए एक बार यहाँ से चला गया तो गाँधी जी के प्रति श्रद्धा के नाम पर सिर्फ गाल बजाने या फिर अधिक से अधिक दो-चार पंक्तियों की कविता लिखने सा ज्यादा कुछ न करूँगा| 

साहित्य से जुड़ें लोगों के पास मन हल्का करने का सबसे सरल साधन है| न काशी-काबा जाने की झंझट न और गंगा नहाने की जरुरत| कोई भी विषय हो बस कोई कविता-कहानी या लेख लिख दो और हो गई मुक्ति| सोशल-मिडिया ने तो ये काम और भी आसान कर दिया है| किसी पत्र-पत्रिका के संपादकों की लल्लो-चप्पो करने की भी जरुरत नहीं है| फेसबुक पर डाल दो और व्हाट्सएप पर दर्जन भर को भेज दो फिर हो गया प्रायश्चित| ऐसी खुशी मिलती है जीतनी हमारे बाप-दादा को भागवत करा के नहीं मिलती रही होगी| 

चेतना लौटी तो फिर से सोचने लगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं| जो है, जैसा है में ही कुछ करना होगा अन्यथा तो ये प्रण पूरा नहीं होगा और उसकी ग्लानि कहीं मेरा इस तरफ आना-जाना बंद न करा दे| उपाय खोजते हुए ये अन्दाजा लगाया कि मूर्ति से सबसे पास के हैण्ड-पम्प की दूरी कुछ 40 मीटर की होगी और अंजुरी भर पानी भी बहुत होगा इस छोटी सी मूर्ति के शीश को धोने के लिए| इसी इरादे से हैंड-पम्प पर जा पहुंचा और पानी निकालने लगा| पता नहीं कब से नहीं चला था तो पानी निकलने के पहले दो-चार हाथ चलाने पड़े| 

संयोग से उस समय उद्यान में सफाई कर्मचारी आये हुए थे जो कचरा आदि उठा रहे थे और उन्होंने मुझे पानी निकालते पाया तो मेरी ओर देखने लगे| मैं कुछ देर ठिठका उनकी प्रतिकृया के इंतज़ार में लेकिन जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने एक जोर का हाथ लगाया और सामने जा अपनी अँजुरी में पानी भर लिया| पानी छलक ना जाये इसलिए सम्हल कर चलते हुए गाँधी की प्रतिमा तक पहुँचा लेकिन रास्ते में बहुत सा पानी उँगलियों के बीच से रिस कर बह गया था| जितना बचा था उतना पानी मूर्ति के शीश पर डाल कर धोने लगा| मूर्ति साफ तो हुई पर मन को संतोष नहीं हुआ इसलिए एक बार और पानी लाने के लिए हैंडपम्प की और बढ़ गया| इस बार जितना ज्यादा बन सका उतना पानी अपनी अँजुरी में लेकर तेजी से डग भरता मूर्ति तक पहुंचा और पानी डाल कर धोने लगा| बापू की प्रतिमा को दो-तीन दशकों बाद इस तरह से छुआ था तो शरीर में एक सिरहन सी दौड़ गई| 

उस दो अँजुरी पानी ने गाँधी जी प्रतिमा को कितना धोया यह तो पता नहीं लेकिन मेरे मन को कुछ निर्मल जरूर कर गया था| 

बापू तुम्हें शत् शत् नमन!

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार 24-मई -2021

शुक्रवार, 21 मई 2021

आवाज़

शब्द फूटते हैं
मूँह से

लिख भी लेता हूँ
काग़ज़ पर 
कलम से

लेकिन फिर भी
बोल नहीं पाता
दिल की बात 

पता नहीं
क्या हो गया है 
मेरी आवाज़ को
 
कहीं खो गयी है
या दब गई है
सीने में
किसी डर से?

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, शुक्रवार 21-मई -2021

रविवार, 9 मई 2021

बापू

रुक कर  
दो पल के लिए
मूँद लेता हूँ आँखें 
और सहज ही
झुक जाता है सर

आते-जाते जब भी 
पड़ती है बापू!
उद्यान में स्थापित 
तुम्हारी मूर्ति पर नज़र

छरहरे बदन पर
एक छोटी सी धोती पहने
तुम चलते थे 
लाठी के सहारे

तुम्हारी सत्य और अहिंसा
की शक्ति थी अपार
जिसके सामने 
अंग्रेज़ भी झुकते थे सारे

भारत माँ के 
तुम लाल थे अनोखे
और हम सब को है
तुम पर गर्व

इसीलिए तो 
मनाते हैं 
तुम्हारे जन्मदिन को ऐसे 
जैसे हो पर्व

कैसी अनोखी है
तुम्हारे जीवन की कहानी 
और पारस जैसी है 
महिमा तुम्हारे नाम की

वे भी हो जाते हैं प्रसिद्ध 
जो तुम्हें कोसते हैं
निंदा करते हैं
तुम्हारे काम की

जिन्होंने
तुम्हें समझा नहीं
वे 
तुम्हारी हर बात पर
सौ बात बनाते हैं

जो दावा करते हैं 
तुम उनके हो
वे भी बस 
अपनी राजनीति की 
दुकान चलाते हैं

तुमने तो 
नहीं देखा होगा बापू!
ऐसे भारत का सपना

लेकिन 
मैं निराश नहीं
धीरे ही सही 
आगे बढ़ रहा है 
देश अपना

बस इतनी सी है 
ईश्वर से प्रार्थना 
कि तुम्हारे सपनों को 
साकार करने की 
दे हमें शक्ति

हम सब मिलकर
अखण्ड रखें 
देश की सम्प्रभुता 
और अडिग हो 
हमारी देश-भक्ति

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 09-मई -2021

मातृ-दिवस

मेरी माँ को
ध्यान नहीं है कि 
आज मातृ दिवस है,

जब मैंने बताया
तो बोली-
खुश रहो बेटे,

कुछ साल पहले तक
मुझे भी मालूम नहीं था-
साल का कोई एक दिन 
मातृ-दिवस होता है,

जब बच्चे थे तब
कोई भी दिन 
माँ के बिना 
होता ही नहीं था,

अब तो बस
उन दिनों की 
यादें आती हैं-

किसी गलती पर 
पापा से डर के 
माँ के पीछे छुपना,

वो मेले में जाने के लिए 
माँ से दस रूपये
अलग से मांगना,

थोड़े बड़े हुए तो 
अपनी पसंद के
खाने-खेलने के लिए 
माँ से लड़ना-झगड़ना,

जब घर से
दूर रहने लगे तो
हर शनिवार शाम
फोन पर बात करना,

जब शादी हो गई तब
बीवी के लिए साड़ी 
लेते हुए माँ के लिए भी 
एक साड़ी लेना,

जब माँ कुछ सिखाये तो 
खिसिया के कहना 
अब बस भी करो माँ 
अब मैं बच्चा नहीं रहा,

और आज,
हर छोटी-बड़ी बात पर
जब माँ की याद आती है
तो लगता है 
हम बड़े क्यों हो गए?

वो भी क्या दिन थे ना?
जब माँ के लिए 
साल का
कोई एक दिन नहीं 
पूरी जिन्दगी ही 
हुआ करती थी 
माँ के आँचल के तले| 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 09-मई -2021