रविवार, 19 दिसंबर 2021

ख्वाब सुनहले

काली रातों के साये में, ख्वाब सुनहले बुनता कौन धड़कन ही जब शोर मचाए, फिर दुनिया की सुनता कौन पंडित और मौलवी बोले , सबसे प्यारा रब का नाम जबसे हमने उनको चाहा, किसी और की सुनता कौन उनकी गलियों में जाकर ही मिल जाता था दिल को चैन उस पर उनको देख लिया तो, दुनिया दारी गुनता कौन लोहे की खिड़की के पीछे, वो परदे में दिखती थी उनकी एक झलक ही काफी, फिर जन्नत को गुनता कौन उनके पहले जाने कितने, चेहरे देखे भूल गए उनके जैसा ना कोई तो, किसी और को चुनता कौन कहे दिवाना आवारा या और कोई इल्ज़ाम लगे हो पहचान हमारी उनसे इससे अच्छा चुनता कौन उनकी बातें उनके चर्चे, हर पल आए उनकी याद वो ना होते जीवन में तो, ख़्वाब सुनहले बुनता कौन

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

सुख-दुख

किसी के लिए 
सबसे बड़ा दुख है 
संतान का ना रहना, 
और कोई कहे
ऐसे संतान का होना
किस काम का है 
जो ना सुने कहना 

किसी के लिए दुनिया में 
गरीबी ही 
सबसे बड़ा दुख है, 
तो किसी के लिए 
अपनों के बिना 
अमीरी में क्या सुख है 

किसी को दुख है 
वो चार पैसे बचाने 
आधे घण्टे की दूरी 
पैदल चलकर जाता है,
किसी का रोना
है पैसा तो बहुत 
लेकिन शरीर के लिए 
आधा घण्टा नहीं दे पाता है 

किसी के हाथ में 
नहीं है मोबाइल 
बड़ा या महंगा वाला 
इसलिए वो रोता है,
और जिसके पास है 
सबसे अच्छा और ऊंचा  
वो भी कहाँ चैन से सोता है 

किसी की मुसीबत है 
उसके बच्चे का 
कम पढ़ा लिखा होना,
तो कोई रोता है 
ऊंची पढ़ाई वाले बच्चे के 
दूर होने का रोना 

बच्चे देखते हैं 
जल्दी बड़े होकर 
अपनी इच्छाओं को 
पूरा करने का सपना, 
बड़ों कि दिल में टीस
कहाँ चले गए वो दिन 
कहाँ गया वो बचपन अपना 

हर किसी को 
अपनी थाली में 
सब सूखा नज़र आता है, 
रूखी-सूखी खाकर भी 
जो संतोष कर ले 
वही सुखी जीवन बीतता है 

जीवन में यदि केवल 
सुख ही सुख हो 
तो वही सुख एकदिन 
नीरसता के दुख में बदल जाएगा,
समझदारी और
सूझबूझ से काम लिया 
तो हर दुख का इलाज़ 
जरूर निकल आएगा

मानव जीवन तो 
संघर्षो और जीत की
एक शानदार कहानी है,
जीओ ऐसे जैसे 
हर रोड़े को पार कर
बहता जाता
दरिया का पानी है 


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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सेम्बर्ग ,शुक्रवार 26-नवंबर-2021

रविवार, 21 नवंबर 2021

अजनबी रास्ते

जिन गलियों में 

खेल-कूद कर 

बचपन बिताया


जिन खाली जगहों पर

गिल्ली डंडा और क्रिकेट 

खेलकर 

छुट्टियों के दिन काटे


जिन रास्तों पर 

चल कर

स्कूल आया गया


जिन चौराहों से 

निकलकर

सायकल चलाना सीखा


पहचान नहीं पाया 

वो गली 

और आगे निकल गया 

कभी जहाँ से

दिन में दस बार 

आया जाया करता था


पता नहीं कैसे 

वे सब आज मुझे 

अजनबी से लगने लगे हैं


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मनीष पाण्डेय 'मनु'

लक्सम्बर्ग, रविवार २१ नवम्बर २०२१ 

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

तर्पण दिवस

आप सभी को
हिन्दी के तर्पण दिवस की
हार्दिक बधाई
समय बदल गया है
इसलिए तर्पण के दिन भी
बधाई देना पड़ता है
आप आहत हो गए
तर्पण दिवस कहने से?
सम्भवतः क्रोधित भी?
हो जाइए,
आपको भी अधिकार है
अन्ततः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
केवल हमारी बपौती तो नहीं है
मैं तो इसे
तर्पण ही मानता हूँ
कोई बताए
क्या उपयोग रह गया है
हिन्दी का
हमारे दैनिक जीवन में?
ना नौकरी मिलती है
और ना सम्मान
सबको
बहती गंगा में हाथ धोना है
और एक दिन के लिए
हिन्दी के प्रति संवेदना दिखाकर
प्रायश्चित कर लिया जाता है
साल भर
हिन्दी के कार्यक्रमों की सूचना
अंग्रेज़ी में मिलती है
हिन्दी साहित्य के दल
अंग्रेज़ी नाम के बनाए जाते हैं
जाने और माने साहित्यकार भी
हिन्दी की दुर्दशा का रोना
अंग्रेजी में रोते हैं
ऐसे में एकदिन हिन्दी दिवस मनाना
ये तर्पण करना नहीं तो
और क्या है ?

---------------------------------------- मनीष पाण्डेय “मनु” लक्सेम्बर्ग ,मंगलवार 14-सितम्बर-2021

हिन्दी

पेट भरने
और घर चलाने के लिए
ना सही
किन्तु
चोट खाने पर
मेरे अंतस दुःख को
बताने की भाषा हिन्दी है
खुश होने पर
उल्लास को
जताने की भाषा हिन्दी है
और तो क्या कहूँ
नींद में जब सपने देखता हूँ
तो उसकी भी भाषा हिन्दी है
इसलिए मेरे मन में
हिन्दी भाषा के लिए
कोई एक दिन निर्धारित नहीं है

हर दिन हिन्दी का है
हिन्दी के लिए है
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सेम्बर्ग ,मंगलवार 14-सितम्बर-2021

रविवार, 15 अगस्त 2021

जश्ने आजादी

मनाओ जश्ने आजादी, के ये त्यौहार जैसा है 
मगर ये बात मत भूलो, के ये उपकार जैसा है 

अगर कीमत नहीं जानो, तो सुन लो देश के प्यारों 
लिया है मोल देकर सर, ये उस उपहार जैसा है 

मुबारक हो तुम्हें गुलशन, ये कलियाँ, फूल, ये डाली 
इन्हे सींचा मगर जिसने, लहू के धार जैसा है 

लगाई जान की बाजी, कभी अपने बुजुर्गों ने 
बिंधे हैं शीश वीरों के, कटीले तार जैसा है 

अभी उतरी नहीं मेहँदी, है जिसके कोरे हाथों से
उसी दुल्हन के माथे से, लुटे शृंगार जैसा है 

दिया बलिदान है जिसने, बुढ़ापे के सहारे का 
उसी माँ के ह्रदय में, मौन के चीत्कार जैसा है 

सम्हलना हर कदम पर तुम, कभी बेसुध नहीं होना
है बैठा ताक में दुश्मन, गिराते लार जैसा है   

तिरंगा शान है अपना, इसे झुकने नहीं देना 
भाल के चंद्र जैसा है, ये मुक्ता हार जैसा है 

मैं भारत का बेटा हूँ, उसी के गीत गाता हूँ
मेरा हर शब्द उसकी, वंदना उद्गार जैसा है 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
भारत,रविवार 15-अगस्त -2021

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

बस कार अमर कर लो

दो चार थमा कर तुम 
बस कार अमर कर लो 


ना उम्र की सीमा हो 
ना ब्रांड का हो बन्धन 
जब चेक करे कोई 
तो देखे केवल धन 
वही रीत यहाँ चलता 
कुछ माल नज़र कर लो 
दो चार थमा कर तुम 
बस कार अमर कर लो 


टायर जब घिसजाये 
तुम नया लगा लेना 
कुछ और अगर बिगड़े 
गैराज चले जाना 
स्क्रैप नहीं करना होगा 
बस इतना अगर कर लो 
दो चार थमा कर तुम 
बस कार अमर कर लो 


राहुल जी के पथ का अनुशरण करते हुए - इंदीवर जी से क्षमा याचना सहित 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
भारत, शुक्रवार 13-अगस्त -2021

शनिवार, 17 जुलाई 2021

माँ दुर्गा की वंदना

 अपने भक्तों पर मैया तू, सदा प्रेम बरसाती है 

ऊँच नीच का भेद नहीं, सब पर करुणा दरसाती है


मैया तेरी बिंदिया, चूड़ी, लाल चुनरियाँ सोहे है

कोटि चंद्र से बढ़कर मैया, मुखड़ा तेरा मोहे है 

जय अम्बे की गूँज से ये, सारी सृष्टि भर जाती है

अपने भक्तों पर मैया तू, सदा प्रेम बरसाती है 


विंध्य वासिनी मैया है तू, अटल भवन में वास करे

अपने भक्तों के कष्टों का, मैया पल में नाश करे

सब दुःख दूर करे मैया तू, सबके मन को भाती है

अपने भक्तों पर मैया तू, सदा प्रेम बरसाती है 


अष्ट भुजा धारी है माँ तू, सिंह सवारी करती है

दुष्टों का संहार करे,भक्तों के दुःख को हरती है

आए हम तेरे द्वारे, तू जग-जननी कहलाती है

अपने भक्तों पर मैया तू, सदा प्रेम बरसाती है 


ऊँच नीच का भेद नहीं, सब पर करुणा दरसाती है

अपने भक्तों पर मैया तू, सदा प्रेम बरसाती है


———

मनीष पाण्डेय “मनु”

शनिवार 17 जुलाई 2021 जाँजगीर

रविवार, 13 जून 2021

कन्वर्टिबल

कसम से 
दिल में सौ-सौ साँप लोट जाते हैं 
जब देखता हूँ
चमचमाती कन्वर्टिबल से 
उतरते हुए किसी ऐसे को 
जिसके वानप्रस्थ के दिन आ गए हैं 

मुझे देखिये साहब 
अभी मेरी उम्र ही क्या है?
लेकिन पीछे की ओर 
बेबी-ऑन-बोर्ड का स्टीकर लगाए 
और बच्चे के बैठने की सीट बांधे
स्टेशन वैगन चला रहा हूँ

ये सब देखकर नाक-कान से 
इतना धुआँ निकलता है 
कि पता चल जाये तो ग्रेटा थन्बर्ग  
मुझे ही जिम्मेदार मान ले
क्लाइमेट चेंज के लिए 

समझ नहीं आता 
कहाँ जाकर अपना सर पटकूँ?
सोचता हूँ कहीं नेहरू जी
इसके लिए भी जिम्मेदार तो नहीं?

सही बात है कि 
कानून के आँखों में पट्टी बंधी होती है 
नहीं तो इतनी नाइंसाफी 
क्यों होती दुनिया में?

किताबों में पढ़ा है 
सब्र का फल मीठा होता है 
अजी! होता होगा
लेकिन कितना सब्र करें?

क्या पता 
जब तक ये मीठा फल हाथ आये
डॉक्टर हमें डाइबिटीज़ का मरीज बता दे 
और हम ये फल खा ही ना सकें 

अब मुझे सब्र नहीं होता

अब तो मुझे भी वैसी ही 
फर्राटे से चलने वाली 
कन्वर्टिबल चाहिए 
लाल रंग वाली


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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार-13-जून -2021

बुधवार, 9 जून 2021

सदा खुश रहना

आज तुम 
दो मुट्ठी पत्थर 
ऐसे घर लाये 
जैसे कोई खजाना हो

कंचे, पत्थर के टुकड़े 
लकड़ी के खिलौने 
हाँ! यही सब होते हैं 
बचपन की पूंजी

लेकिन
कहीं ना कहीं 
ऐसे ही पड़ती है आदत
चीजें जमा करने की 

जो आगे चलकर
पैसे, जमीन और 
ना जाने क्या-क्या 
जमा करने में 
बदल जाता है 

और इसकी लत लगने से 
आदमी
सब कुछ भुलाकर 
बस जमा-खोरी में
लग जाता है


मेरे बेटे!
मैं ये नहीं कहता कि 
साधन और सुविधाहीन रहना 
पर जमा करने की 
इसी लोभ और लत से 
बचने की कोशिश करना 

असली पूंजी 
ये साजो-सामान नहीं 
तुम्हारे मन का
संतोष है 

हो सके तो जमा करना 
दिल से जुड़े रिश्ते 
और 
जो अपने पास है 
उसमें ही  
खुश हो लेने की कला 

जैसे आज तुम 
पत्थर के इन 
धूल-मिट्टी सने 
टुकड़ों से खेल कर 
खुश हो गए

क्योंकि
जिनके पास संतोष है 
वे हर हाल में 
खुश रह लेते हैं

यही कामना करता हूँ 
कि तुम 
सदा खुश रहना
मेरे प्यारे!

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, बुधवार 09-जून -2021

रविवार, 30 मई 2021

काजल के निशान - 1

यह क्या?
तुमने तो 
मेरे शर्ट की बाँह में
काजल लगा दिया

अभी-अभी तो लिया था
और तुमने 
खराब कर दिया
काजल लगा कर

पता भी है?
काजल के निशान 
जाते नहीं है 

सफ़ेद कपड़े से तो 
बिलकुल भी
नहीं जाते 

अब इसे पहनकर 
दफ्तर, बाजार 
या कहीं और नहीं जा सकता 

तुम भी ना! 

——————————-
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
लक्सेम्बर्ग, रविवार ३० मई २०२१

काजल के निशान - 2

बिछुड़ते हुए 
जब तुम 
मेरे सीने से लिपट
रोने लगी थी 
और मैंने तुम्हें
अपनी बाँहों में भर लिया था 

तभी शायद 
मेरी कमीज की बाँह पर 
लग गया  
तुम्हारी भीगी आँखों का 
काजल

उन्हीं आँखों का काजल
जिन्हें देख मैं 
बावरा हुआ जाता था

पता है
मेरी कमीज की बाँह पर 
वो निशान आज भी है 

बहुत कोशिश की 
छुड़ाने की 
उस निशान को 

साबुन रगड़े 
निम्बू के रस लगाए
और ना जाने 
क्या-क्या जतन किये 
पर निशान गया नहीं

बिलकुल वैसे ही 
जैसे मेरे दिल में 
तुम्हारा प्यार की छाप
अमिट है 

——————————-
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
लक्सेम्बर्ग, रविवार ३० मई २०२१

सोमवार, 24 मई 2021

दो अँजुरी पानी

आजकल मैं भारत की राजधानी नई दिल्ली से कुछ 6300 किमी दूर, यूरोप के एक प्रतिष्ठित शहर लक्सेम्बर्ग में अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ रहता हूँ| यह शहर इस देश की राजधानी भी है और इस देश का नाम भी लक्सेम्बर्ग ही है| वैसे तो यह देश बहुत छोटा सा है जिसका कुल भू-भाग 2586 वर्ग किमी है (भारत के सबसे छोटे राज्य गोवा का क्षेत्रफल 3207 वर्ग किमी है) और जनसँख्या लगभग 6 लाख जिसमें आधे तो विदेशी है (दूसरे यूरोपीय देशों और अन्य देशों के प्रविसियों को मिलाकर) लेकिन इस देश की स्थिति बहुत मज़बूत है| 

जिन्होंने ने यूरोप की यात्रा की होगी उन्होंने वीसा लेते हुए शायद एक बात पर ध्यान दिया हो कि यूरोप के वीसा को "शेंगेन वीसा" (https://www.schengenvisainfo.com/) कहते हैं जो उन्हें सभी 26 यूरोपीय देश में बिना रोक-टोक के आने की छूट देता है| इस वीसा में आइसलैंड,नार्वे और स्विट्ज़रलैंड जैसे 19 अन्य देशों में भी जाने की छूट है जो सीधे-सीधे "यूरोपीय संघ" के भाग नहीं हैं| "शेंगेन" वास्तव में लक्सेम्बर्ग के छोटे से एक गाँव का नाम जो मेरे घर से कुछ 4० किमी की दुरी पर है| 14-जून-1985 को इसी गांव में हुए एक सम्मलेन में बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, लक्सेम्बर्ग और नेदरलॅंड्स ने सबसे पहली बार एक व्यापारिक और राजनैतिक संगठन बनाने की संधि पर दस्तखत किये थे| उस संधि का नाम "शेंगेन समझौता" पड़ा और यही संगठन आगे चलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली बहुदेषीय संगठनों में से एक "यूरोपीय संघ" के नाम से जाना गया जिसमें यूरोप के कुल 26 देशों की सदस्यता है|  

लक्सेम्बर्ग शहर में महानगर पालिका ने शहर के बीचो-बिच एक बड़ा उद्यान बनाया है जो कि तीन हिस्सों में बंटा हुआ है और इसकी लम्बाई लगभग १ किमी की है| इस उद्यान के बीच के भाग में बच्चों के खेलने की जगह है| कई तरह के झूले, फिसल-पट्टियां और कई कृत्रिम समुद्र तट पर एक पुराने जहाज का ढांचा बना है| इस उद्यान में पानी से खेलने की जगह भी है जिसमें पम्प से पानी बहता है और जगह-जगह पर भरता हैं जहाँ बच्चे उछल कूद करते हैं|  उद्यान में कई हैंड-पम्प भी लगे हैं जिसके साथ बच्चे खेलते हैं| यहाँ प्रकार से जमीन से निकले पानी साफ और सुरक्षित नहीं माना जाता है इसलिए सरकार ने साफ शब्दों में सन्देश लिखा है कि पानी पीने योग्य नहीं है| गर्मी के समय में बच्चे उनमें से पानी निकालते हैं और छोटे बढे गड्ढों में भरे पानी से भीगते-भिगाते हुए खेलते हैं| मेरा छोटा बेटा अदित इस उद्यान के पानी और झूले आदि में बहुत प्रसन्न होकर खेलता है| 




उद्यान के इस हिस्से में दक्षिण-पश्चिमी छोर पर महात्मा गाँधी की भी एक अर्ध प्रतिमा लगी हुई है| इस काँस्य प्रतिमा को पद्म भूषण श्री अमर नाथ शहगल जी ने बनाया था| श्री सहगल भारत के जाने-माने मूर्तिकार और चित्रकार थे और जब वे 1965 में पेरिस में किसी आधुनिक मूर्ति कला के कार्यक्रम में आये तब उनका संपर्क लक्सेम्बर्ग के तात्कालीन प्रधानमंत्री से  हुआ था| बाद में उन्हें महात्मा गाँधी की एक मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी दी गई जिसे 1973 में लक्सेम्बर्ग शहर के इस प्रमुख उद्यान में स्थापित किया गया| बाद में लक्सेम्बर्ग के प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने देश में स्टूडियो खोलने और रहने का निमंत्रण दिया तो सहगल जी 1979 से 2004 तक लक्सेम्बर्ग में रहे| बाद में 2004 में वे भारत चले गए और 28-दिसम्बर-2007 को 85 वर्ष की उम्र में उनका लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हुआ| जी हाँ ये वही अमर नाथ सहगल जी हैं जिन्होंने दिल्ली के विज्ञान भवन की प्रतिकृति के रूप में एक कांस्य-भीति चित्र (मुराल) बनाया था और उसके हटाए जाने पर सरकार के विरुद्ध केस दर्ज करा दिया था| दिल्ली हाईकोर्ट ने उनके हक़ में फैसला दिया था और मुवावजे की राशि के साथ-साथ उस भीति-चित्र का पूर्ण स्वामित्व भी सहगल जी के नाम किया था| 







इस प्रतिमा की एक खाशियत यह है कि इसमें गाँधी जी ने उनकी चिर परिचित गोल कांच वाला चस्मा नहीं पहना है| उनकी जन्म जयंती के १५०वी वर्षगांठ पर लक्सेम्बर्ग ने उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था| गाँधी जी के सबसे छोटे बेटे देवदास की पुत्री तारा गाँधी भट्टाचार्जी इस शुभ अवसर पर लक्सेम्बर्ग में कार्यक्रम में उपस्थित थीं| उन्होंने गाँधी जी प्रतिमा को देख कर इसे महात्मा गांधी की बिना चश्मे वाली एक दुर्लभ मूर्ति बताया था। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें अंदाजा नहीं मूर्तिकार ने बापू किस उम्र को उकेरने का प्रयास लेकिन वे इस प्रतिमा में कम उम्र के लगते हैं पर उस चेहरे मोहरे से बहुत मिलता जुलता है जो मुझे याद है| 



मैं सुबह या शाम को जब सैर पर जाता हूँ तो लगभग हर दिन इस प्रतिमा के सामने से निकलता हूँ| गाँधी जी प्रतिमा को देख थोड़ा रूक जाता हूँ और दो पल के लिए अपनी आँखें मूँद कर सर झुका लेता हूँ| प्रतिमा है तो वे तो कुछ कहते नहीं और मैं भी कुछ नहींबोलता, न मुँह से और न मन में, बस मौन ही नमन कर के आगे बढ़ जाता हूँ| हमलोग अक्सर इस प्रतिमा के पास आते हैं और मेरे दोनों बच्चे उनकी प्रतिमा के पास समय बिताते हैं|




आज (24 मई 2021) की सुबह सैर से लौटते हुए फिर से प्रतिमा के सामने से आना हुआ| प्रतिमा पर नज़र पड़ी तो देखा कि किसी ने उन्हें "मास्क" पहना दिया था| ऐसा लगा जैसे लोगों को आत्म-अनुशासन की सीख देने के लिए गाँधी जी ने भी "मास्क" लगा लिया हो| वैसे भी वे किसी और को ऐसी कोई सीख देते नहीं थे जिसका पालन वे खुद नहीं करते थे| लेकिन "मास्क" का रंग काला था तो पता नहीं क्यों मन में ऐसा बोध हुआ जैसे कि ये उनके सत्याग्रह का एक रूप है जिसमें वे दुनिया भर के सत्ताधीशों और उनसे भी बढ़कर जनता की स्वयं के अनुशासन-हीनता के प्रति अपनी असहमति के लिए अनसन कर रहे हों| मैंने पढ़ा है कि वे न केवल अंगेजी सरकार के विरुद्ध वरन अपनों के किसी काम से असहमत होते थे तब भी वे मौन और उपवास रखकर सत्याग्रह करने बैठ जाते थे| लगा शायद आज भी वे वैसा ही कुछ कह रहे हों कि स्वछता और स्वालम्बन हम सबका कर्त्तव्य है| यदि हम स्वयं ही उदासीन और असावधान हो जाएँ तो ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकता| 




इसी उधेड़-बुन में मेरी नज़र पड़ी कि उनकी प्रतिमा पर किसी चिड़िया का अपशिस्ट लग गया है| अब चिड़िया को कहाँ पता है कि यहाँ गाँधी जी की प्रतिमा लगी है जो जरा आगे पीछे देख कर काम करे| और जब उनके अपने ही देश में सबसे समझदार प्राणी होकर भी लोग ही उन पर पलीता लगाने से नहीं चूकते तो फिर उस बेचारे पंछी का क्या कहें? फिर ख्याल आया कि ऐसा दूसरों पर आरोप लगाना बहुत ही आसान है, खुद एक गिरहबान में झांक कर देखो तो पता चले की खुद की करनी कैसी है| और फिर दुनिया भर में ऐसे खुले में प्रतिमा लगती है तो उस पर मैला-कचरा तो होता ही है चाहे वह किसी व्यक्ति की हो या किसी देवी-देवता की प्रतिमा हो| मन में ख्याल आया कि क्यों न मैं इस प्रतिमा को धो पोंछ कर साफ कर दूँ? 

मूर्ति को साफ़ करने का विचार तो अच्छा था पर ये काम हो कैसे? मेरे पास कोई पानी की बोतल या कोई बर्तन तो था नहीं तो पानी लाऊंगा कैसे? सोचा घर तो पास ही है तो क्यों ना जाकर एक बाल्टी, गिलास या कोई बर्तन लाकर साफ कर दूँ| फिर खुद को सचेत किया कि नहीं ये सही नहीं है, घर जाते ही किसी न किसी बहाने आलस करूँगा और लौटकर नहीं आऊंगा| मैं कोई बड़ा देशभक्त और अनुशासित व्यक्ति नहीं हूँ इसलिए एक बार यहाँ से चला गया तो गाँधी जी के प्रति श्रद्धा के नाम पर सिर्फ गाल बजाने या फिर अधिक से अधिक दो-चार पंक्तियों की कविता लिखने सा ज्यादा कुछ न करूँगा| 

साहित्य से जुड़ें लोगों के पास मन हल्का करने का सबसे सरल साधन है| न काशी-काबा जाने की झंझट न और गंगा नहाने की जरुरत| कोई भी विषय हो बस कोई कविता-कहानी या लेख लिख दो और हो गई मुक्ति| सोशल-मिडिया ने तो ये काम और भी आसान कर दिया है| किसी पत्र-पत्रिका के संपादकों की लल्लो-चप्पो करने की भी जरुरत नहीं है| फेसबुक पर डाल दो और व्हाट्सएप पर दर्जन भर को भेज दो फिर हो गया प्रायश्चित| ऐसी खुशी मिलती है जीतनी हमारे बाप-दादा को भागवत करा के नहीं मिलती रही होगी| 

चेतना लौटी तो फिर से सोचने लगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं| जो है, जैसा है में ही कुछ करना होगा अन्यथा तो ये प्रण पूरा नहीं होगा और उसकी ग्लानि कहीं मेरा इस तरफ आना-जाना बंद न करा दे| उपाय खोजते हुए ये अन्दाजा लगाया कि मूर्ति से सबसे पास के हैण्ड-पम्प की दूरी कुछ 40 मीटर की होगी और अंजुरी भर पानी भी बहुत होगा इस छोटी सी मूर्ति के शीश को धोने के लिए| इसी इरादे से हैंड-पम्प पर जा पहुंचा और पानी निकालने लगा| पता नहीं कब से नहीं चला था तो पानी निकलने के पहले दो-चार हाथ चलाने पड़े| 

संयोग से उस समय उद्यान में सफाई कर्मचारी आये हुए थे जो कचरा आदि उठा रहे थे और उन्होंने मुझे पानी निकालते पाया तो मेरी ओर देखने लगे| मैं कुछ देर ठिठका उनकी प्रतिकृया के इंतज़ार में लेकिन जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने एक जोर का हाथ लगाया और सामने जा अपनी अँजुरी में पानी भर लिया| पानी छलक ना जाये इसलिए सम्हल कर चलते हुए गाँधी की प्रतिमा तक पहुँचा लेकिन रास्ते में बहुत सा पानी उँगलियों के बीच से रिस कर बह गया था| जितना बचा था उतना पानी मूर्ति के शीश पर डाल कर धोने लगा| मूर्ति साफ तो हुई पर मन को संतोष नहीं हुआ इसलिए एक बार और पानी लाने के लिए हैंडपम्प की और बढ़ गया| इस बार जितना ज्यादा बन सका उतना पानी अपनी अँजुरी में लेकर तेजी से डग भरता मूर्ति तक पहुंचा और पानी डाल कर धोने लगा| बापू की प्रतिमा को दो-तीन दशकों बाद इस तरह से छुआ था तो शरीर में एक सिरहन सी दौड़ गई| 

उस दो अँजुरी पानी ने गाँधी जी प्रतिमा को कितना धोया यह तो पता नहीं लेकिन मेरे मन को कुछ निर्मल जरूर कर गया था| 

बापू तुम्हें शत् शत् नमन!

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार 24-मई -2021

शुक्रवार, 21 मई 2021

आवाज़

शब्द फूटते हैं
मूँह से

लिख भी लेता हूँ
काग़ज़ पर 
कलम से

लेकिन फिर भी
बोल नहीं पाता
दिल की बात 

पता नहीं
क्या हो गया है 
मेरी आवाज़ को
 
कहीं खो गयी है
या दब गई है
सीने में
किसी डर से?

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, शुक्रवार 21-मई -2021

रविवार, 9 मई 2021

बापू

रुक कर  
दो पल के लिए
मूँद लेता हूँ आँखें 
और सहज ही
झुक जाता है सर

आते-जाते जब भी 
पड़ती है बापू!
उद्यान में स्थापित 
तुम्हारी मूर्ति पर नज़र

छरहरे बदन पर
एक छोटी सी धोती पहने
तुम चलते थे 
लाठी के सहारे

तुम्हारी सत्य और अहिंसा
की शक्ति थी अपार
जिसके सामने 
अंग्रेज़ भी झुकते थे सारे

भारत माँ के 
तुम लाल थे अनोखे
और हम सब को है
तुम पर गर्व

इसीलिए तो 
मनाते हैं 
तुम्हारे जन्मदिन को ऐसे 
जैसे हो पर्व

कैसी अनोखी है
तुम्हारे जीवन की कहानी 
और पारस जैसी है 
महिमा तुम्हारे नाम की

वे भी हो जाते हैं प्रसिद्ध 
जो तुम्हें कोसते हैं
निंदा करते हैं
तुम्हारे काम की

जिन्होंने
तुम्हें समझा नहीं
वे 
तुम्हारी हर बात पर
सौ बात बनाते हैं

जो दावा करते हैं 
तुम उनके हो
वे भी बस 
अपनी राजनीति की 
दुकान चलाते हैं

तुमने तो 
नहीं देखा होगा बापू!
ऐसे भारत का सपना

लेकिन 
मैं निराश नहीं
धीरे ही सही 
आगे बढ़ रहा है 
देश अपना

बस इतनी सी है 
ईश्वर से प्रार्थना 
कि तुम्हारे सपनों को 
साकार करने की 
दे हमें शक्ति

हम सब मिलकर
अखण्ड रखें 
देश की सम्प्रभुता 
और अडिग हो 
हमारी देश-भक्ति

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 09-मई -2021

मातृ-दिवस

मेरी माँ को
ध्यान नहीं है कि 
आज मातृ दिवस है,

जब मैंने बताया
तो बोली-
खुश रहो बेटे,

कुछ साल पहले तक
मुझे भी मालूम नहीं था-
साल का कोई एक दिन 
मातृ-दिवस होता है,

जब बच्चे थे तब
कोई भी दिन 
माँ के बिना 
होता ही नहीं था,

अब तो बस
उन दिनों की 
यादें आती हैं-

किसी गलती पर 
पापा से डर के 
माँ के पीछे छुपना,

वो मेले में जाने के लिए 
माँ से दस रूपये
अलग से मांगना,

थोड़े बड़े हुए तो 
अपनी पसंद के
खाने-खेलने के लिए 
माँ से लड़ना-झगड़ना,

जब घर से
दूर रहने लगे तो
हर शनिवार शाम
फोन पर बात करना,

जब शादी हो गई तब
बीवी के लिए साड़ी 
लेते हुए माँ के लिए भी 
एक साड़ी लेना,

जब माँ कुछ सिखाये तो 
खिसिया के कहना 
अब बस भी करो माँ 
अब मैं बच्चा नहीं रहा,

और आज,
हर छोटी-बड़ी बात पर
जब माँ की याद आती है
तो लगता है 
हम बड़े क्यों हो गए?

वो भी क्या दिन थे ना?
जब माँ के लिए 
साल का
कोई एक दिन नहीं 
पूरी जिन्दगी ही 
हुआ करती थी 
माँ के आँचल के तले| 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 09-मई -2021

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

तेरे बिना

तेरे बिनातनहा लगेदिन रात क्याजिंदगानी
तू जो नहींहै साथ मेंकिस काम की ये जवानी

देखूँ जहांचेहरा तेराआता मुझे बस नज़र
तेरे तसव्वुर में खोया हुआ हूँनहीं और कुछ भी ख़बर
तेरी ही यादों मेंतेरे ख़यालों मेंसाँसों की मेरी रवानी

बाहों में भर लूँतुझे प्यार कर लूँख्वाहिश यही दिलरुबा
जन्मों जनम रहे तू मेरीकरता हूँ रब सेयही बस दुआ 
तेरा नाम जोशामिल नहींमेरी अधूरी कहानी

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, सोमवार 05-अप्रेल-2021

बुधवार, 31 मार्च 2021

संस्कारों की दुहाई

मेरी पत्नी के कपड़ों  की 
लम्बाई नापने से पहले 
अपने नियत की 
सच्चाई नाप कर लाना 

मेरी बहन के फटे जींस 
पर छींटा कसी करने से पहले 
अपनी दकियानूसी सोच 
के उधड़े 
सील कर आना 

मेरे साथी के खुले कपडों
को मुद्दा बनाने के पहले 
जरा बताना मुझे 
कि तुम्हारा इरादा क्या है?

संस्कारों की 
खोखली दुहाई देने से पहले
बताना जरा 
तुमने उनका क्या किया 
जो करते हैं 
इंसानियत की हदें पार?

तुमको क्यों हर बात पर 
दिख जाती है गलतियों 
लड़किओं में 
और खुद नहीं देखते आइना?


बहार

फिर से खिलने लगी हैं 
कलियाँ डालिओं पर
निकल रहे हैं
नए पत्ते
पीले-हरे से रंगों के 

फिजा में बहार 
बस आने को है 
हर साल की तरह 

इन्हे फर्क नहीं पड़ता
इस बात का 

चाहे वे बच्चे
बड़े हो गए हों 
जो खेलते थे 
इन पेड़ों की
डालियों से लटकर 

या अब वो माली 
जीता नहीं 
जिसने उन्हें पौधे से 
पेड़ बनाया 
अपनी देख-रेख में 

इस बात से भी नहीं 
कि कोई ले जायेगा 
इनके फूल तोड़कर 

सजाने को 
किसी के बालों में,
किसी मेज के गुलदान में
किसी मंदिर-मस्जिद, 
गुरूद्वारे-गिरजा घर में 
या कहीं और 

नहीं ले गए तो भी
ये फूल यूँ भी गिर जायेंगे 
सूख या गलकर 

फर्क नहीं पड़ता इन्हें 
कि कोई निहारे और 
कैद करे अनगिनत 
चित्रों में 
या कोई हड़बड़ी में 
निकल जाये सामने से 
बिना निहारे या सराहे 


वे तो बस खिलते हैं 
कि बस उन्हें 
खिलना ही आता 
बहारों को लाने 
फ़िज़ाओं में 

शनिवार, 13 मार्च 2021

सड़क

ये सड़क यहीं है
दशकों से,
न कहीं जाती है 
और न बदलती है 

कभी किसी को
भटकाती है
तो किसी को 
सही राह ले आती है 
 ये सड़क 

कभी तो किसी
नई नवेली दुल्हन को 
ले जाती है पिया के घर 
तो कभी बिटिया को 
त्योहारों में 
लाती है वापस पीहर
ये सड़क 

सुनती है 
आते जाते लोगों के
दुख-दर्द की दास्तान
और उनके हँसी ठट्टों में
खिलखिलाती भी है 
ये सड़क 

जाने कितनों को 
पहुँचती है 
उनके मंजिलों तक 
ये सड़क 

जोड़ती है 
दूर-दराज में रहने वालों को 
और उनके जीवन को
आसान बनाती है 
खुद बेजान सी 
ये सड़क 

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, शनिवार 13-मार्च-2021

सोमवार, 8 मार्च 2021

बदलाव

बदलाव
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बदलने लगे हैं
मायने 
हर बात के,

बदल रहे हैं
हमारे शर्मो-लिहाज़ के
पैमाने,

हम क्या
खाते-पहनते हैं-
और हमारे
उठने-बैठने के तौर तरीक़े
बदल रहे हैं

कोई तैयार नहीं
ज़रा सुन-सह लेने को

हर किसी को
बड़ी जल्दी है 
सब हासिल कर लेने की,

राम जाने
कैसा समय आने वाला है?

कहते थे
मेरे परदादा 
गाँव की पंचायत में
किसी विवाद को सुलझाते

ऐसा
मेरे दादा जी
बताते थे

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार ०८-मार्च-२०२१

सूरज

सूरज
तुम तो
हज़ारों करोड़ों सालों से
रोज आते हो ना?

तुमने तो सब देखा है
अपनी आँखों से,
फिर क्यों भला
कभी कुछ नहीं कहते
कुछ नहीं करते?
क्यों अंदर-अंदर ही
जलते रहते हो?

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, सोमवार 08-मार्च-2021

रविवार, 7 मार्च 2021

बादल

अरे! बादल
तुम्हें किस बात का
घमण्ड है भला?
क्यों इतना गरजते हो?
क्यों इतराते हो और 
भटकते रहते हो इधर उधर?

तुम तो बस 
एक अदना से
मुलाजिम हो समंदर के,
जिसने भेजा है तुम्हें-
ताल-तलैया,
खेत-खलिहान
और पहाड़ों को लौटाने
जो कभी लिया उसने
नदियों के रास्ते
उधार का पानी 


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अरे! बादल
ये क्या गुड़गुड़ की 
आवाज आ रही है
तुम्हारे पेट से?

क्या आज फिर
खाली पेट ही 
निकल पड़े हो
काम पर जाने के लिए?

या फिर लौट कर 
आ रहे हो
किसी लंगर से 
बिना खाये-पीये?

जो भी हो,
और कुछ नहीं तो
दो घूंट पानी पी लो
लेकिन
किसी को नहीं बताना
अपने मन का भेद

यहाँ लोग 
तुम्हारी मजबूरी की दास्तान
सुन तो लेंगे
बड़े चाव से
पर कोई आएगा नहीं 
मदद के लिए

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अरे! बादल
ये कहाँ भटक रहे हो 
शाम ढले?

घर नहीं जाना?

जानते नहीं 
लोग बातें बनाने लगेंगे

तुम्हें आवारा, निकक्मा 
और लापरवाह कहेंगे

नदी और समुंदर 
को दोष देंगे कि-
तुम्हें नहीं दिये अच्छे संस्कार 

जाओ लौट जाओ
घर को

यदि निकले हो
सफर में 
कहीं और जाने 
तो बिता लो रात  
कहीं किसी ठौर

कल सबेरे चले जाना
दिन निकाल आए
तब 

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मनीष पाण्डेय “मनु”

लक्सम्बर्ग, रविवार 07-मार्च-2021

एक प्याली कविता

अंतर्मन के
विचारों को 
कागज-कलम की
केतली पर चढ़ाई है,
थोड़ा उबाल आने दीजिये
फिर अपने लहज़े के 
मिठास के साथ
एक प्याली कविता 
आपको भी दूँगा 
चुस्कियों के लिए 


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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, रविवार 07-मार्च-2021

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

जय हिन्द

अब हम बच्चे नहीं रहे
इसलिए छब्बीस जनवरी और 
पंद्रह अगस्त के दिन 
स्कुल नहीं जाते-
साफ-सुथरे ड्रेस में 
तैयार होकर

दस-बारह दिनों तक 
आईने के सामने खड़े होकर
ऊंचे स्वर में 
अपने गीत, भाषण 
या नाटक के संवादों की 
तैयारी भी नहीं करते 

नहीं गाते 
सारे जहां से अच्छा,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
और वंदे मातरम् के गान
और न ही बूंदी के लड्डू 
देता है कोई 

सरकारी नौकरी भी नहीं है हमारी 
कि कम से कम 
कार्यालय में ही
नील गगन में फहराते
तिरंगे को सलामी देकर 
भारत माता के जयकारे लगाएँ 

और तो और,
हम तो भारत में ही नहीं है 
कि आते जाते, कहीं-न-कहीं  
गगन कि शोभा बढ़ाता 
तिरंगा झण्डा दिखे,
या बच्चों कि कोई रैली 
ही दिख जाए 
जो जा रहा हो 
नारे लगाता 
कौमी तिरंगे झंडे के साथ

सुबह-सुबह से कानों में 
देश भक्ति से भरे 
फिल्मी गानों कि आवाज भी 
नहीं सुनाई देती है 
कहीं दूर से आती हुई 

लेकिन
भारत माँ के लिए प्रेम 
और भारतीय होने का गौरव  
आश्रित नहीं है 
किसी तारीख
किसी जगह 
किसी कागज के टुकड़े
या किसी और के दिये 
देशभक्ति के प्रमाण-पत्र का 

माँ भारती तो 
हमारी हर-सांस
हर धड़कनों में बसी है 
और उसके जिक्र भर से 
रोम-रोम पुकारता है 
जय! हिन्द, जय! हिन्द

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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, मंगलवार 26-जनवरी-2021