सोमवार, 26 नवंबर 2007

याद आती है

आज गाँव से तो क्या,
देश से इतनी दूर आ बैठा हूँ,
तो याद आती है -
कि कैसे बचपन में
घर से
बस बाहर निकलने पर
माँ का जी घबरा जाता था।

जब मेरी गाड़ी कि रफ्तार
तेज होती है,
तो याद आती है कि कैसे
सायकल को तेज चलाता देख
पापा डांटने लगते थे।



जब किसी मीटिंग में
करता हूँ बड़ी-बड़ी बातें
और लोग तारीफ करते हैं
मेरे बातों कि,
तो याद आती है -
कि कैसे मेरे मुह से
तुतलाती बातें सुन कर
मेरे माता-पिता खुश हो जाते रहे होंगे।

जब कुछ अच्छा खाने को नहीं मिलता
और दिन गुजरता हूँ
पीज़ा-बर्गर खा कर ,
तो याद आती है -
कि कैसे माँ के हाथ की बनाईं
बैगन-करेले की सब्जी नहीं खाता था।

जब लिखता हूँ
कम्पनी के क्लाइंट को
ई - मेल अंग्रेजी मैं,
तो याद आती है -
कि कैसे सिखाते थे पापा
अक्षरो को लिखना
अपने हाथों से
मेरा हाथ पकड़ कर।

जब कभी किसी जूनियर को
धमकाता हूँ
उसकी गलती पर,
तो याद आती है -
कि कैसे डर लगता था
स्कुल में गुरूजी जी झिड़की से।

जब प्रोजेक्ट में आये
किसी नए लड़के को सिखाता हूँ
कोई चीज बार-बार,
तो याद आती है -
कि कैसे चिढ़ता था
दुहराते हुए कोई बात
अपने छोटे भाई को
कुछ सिखाते हुए।

पता नही क्यों?

पर हर आने वाले पल में
बीते हुए पलों कि

याद आती हैं।

---------------------------------------
मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, सोमवार, 26 नवंबर 2007

रविवार, 25 नवंबर 2007

शिक्षक या गुरु?

मेरे पिता एक 'शिक्षक' हैं, ये बात मैं तब से जानता और बोलता था जब मैं अबोध बालक था। तब मैं ये जानता भी नहीं था की मेरे पिता शिक्षक क्यों हैं? कोई ब्यक्ति वकील, डॉक्टर, पुलिस या शिक्षक होता क्यों है? बस ये जानता था की मैं जिस विद्यालय में मैं पढ़ता हूँ, वो भी वंही की अन्य कक्षा में पढाते हैं। सार ये कि मेरे पिता एक शिक्षक हैं और मैं एक विद्यार्थी।

समय के साथ थोडा और ज्ञान हुआ तो जाना की जो हमें स्कूल में पढाते हैं वो हमारे 'गुरु' हैं और हम उनके 'शिष्य'। वैसे ही जैसे ऋषि 'धौम्य' या 'सान्दिपनी' गुरु थे और जैसे 'उपमन्यु/आरुनी-उद्दालक' या भगवान् 'कृष्ण' शिष्य।

इन सभी कि बीच मैंने श्लोक सीखा-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवेनमः

अर्थात गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, गुरु ही स्वयम परब्रह्म हैं और उन गुरु को मेरा प्रणाम है.
अब तो विषय और भी जटिल हो गया, पहले तो मैं शिक्षक से गुरु तक कि यात्रा को बड़ा मान रहा था और अब तो बात त्रिदेव और पारब्रह्म तक जा पहुंची।


तो क्या मेरे पिता गुरु हैं? ऋषि धौम्य कि तरह? ऋषि सान्दिपनी कि तरह? और मैं, मैं कृष्ण तो नहीं पर उपमन्यु या आरुनी? और फिर क्या वो सभी शिक्षक जो किसी न किसी शाला में पढाते हैं वो गुरु हैं? और वो सभी जो वहाँ विद्या ग्रहण करने जाते है वो शिष्य हैं? और फिर मेरे गुरु ने ऐसा कुछ आदेश दिया जैसा उपमन्यु और आरुनी कि मिला था तो? तो क्या मैं इतना आज्ञाकारी हूँ? तो क्या यदि मैंने उनकी आज्ञा मानी तो वो मुझे भी सर्व ज्ञाता होने का वर दे सकते हैं?


दिन बिताते गए और मैं उत्तर कक्षाओं में बढ़ता गया। बालपन से तरुनाई तक आते-आते और बहूत सी घटनाएं देखी और सुनी। सुना कि किसी शिक्षक ने अपने एक विद्यार्थी कि इतना पीटा कि कई दिनों तक उसका स्वस्थ बिगडा रहा। फिर ये भी सुना की किसी छात्र ने नक़ल करते पकड़ने पर शिक्षक पर हाथ उठाया। पर ये कैसे संभव है?

कैसे कोई गुरु अपने शिष्य के प्रति निर्दयी हो सकता है? और कैसे कोई शिष्य आपने गुरु को आहात कर सकता है? शिष्य तो 'कर्ण' भी था, वो कर्ण जिसने गुरु की निद्रा भंग करने से भला आपने को कीडे से कटा लिया? किन्तु कर्ण को क्या मिला? गुरु का श्राप? और गुरु दोन ने क्या किया? अर्जुन को दिए आपने वचन के लिए 'एकलव्य' का अंगूठा ले लिया?

पर ये सब तो शास्त्रों और पुराणों की बातें हैं। युगों पूर्व की बातें हैं? तब जब लोग आपने गुरु को सबसे बढ़कर मानते थे। गुरु की महत्ता तो कबीर ने ऐसे बखान की है-

गुरु गोविन्द दोउ खडे, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो मिलाय॥

गुरु का स्थान गोविन्द से भी बढ़कर होता है। सद्गुरु के बिना तो परमार्थ की प्राप्ति हो ही नही सकती। माता-पिता तो जन्म देते हैं, किन्तु वो गुरु ही है जो हम-आपको को मनुष्य बनाते हैं। गुरु के बिना ज्ञान नही मिलता और ज्ञान के बिना मनुष्य पशु से बढ़कर नही।

गुरु की परिसीमा इतनी सीमित भी नही है। वैसे तो मनुष्य का सर्व प्रथम गुरु उसकी माता होती है। और ऐसे ही पिता, भाई-बंधू और व्यापक रूप में ये पूर्ण समाज हमारा गुरु होता है।

ये सब तो ठीक है, किन्तु अपना प्रश्न तो जहाँ का तहां है! क्या आज के शिक्षक 'गुरु' के उपमेय हैं? क्या आज उनका समाज के प्रति योगदान है जो उर्ध्व वर्णित है? क्या केवल शाला में पढ़ने मात्र से कोई गुरु बन सकता है? शिक्षक होना क्या आज केवल एक व्यवसाय बन गया है? ट्यूशन की मारा-मारी, निजी विद्यालयों की चमक-दमक और उनका व्यवसायिक कारोबार क्या गुरुकुल के समकक्ष रह गए हैं? जींस की पैंट पहन कर छात्रों के साथ गलबहियाँ करते नए उम्र के लडके क्या गुरु की गरिमा को बचा रहे हैं? क्या आज के शिक्षक, गुरु होने की गुरुता तो समझते हैं?

और फिर केवल एक पक्ष को क्यों दोष देना? कभी खुद के भीतर भी झाँक कर देखना चाहिऐ! क्या आज हमारा समाज शिक्षक को गुरु का स्थान देता है? क्या हम १५०/- महीने की ट्यूशन लगाकर पढ़ने वाले को एक काम करने वाले की दृष्टि से नही देखते?

आपने देखा है किसी छात्र को अपने शिक्षक के चरण स्पर्श करते हुए? यदि आप एक पिता हैं तो बताइए की पिछली बार कब आपने अपने बेटे/बेटी की शिक्षक को बिना कारण मान दिया है? यदि आप एक छात्र/छात्रा हैं तो जरा बताइए आप अपने शिक्षक के प्रति क्या भाव रखते हैं?

चाहे हम ये स्वीकार करें या नही, किन्तु ये निश्चय ही सत्य है की समाज का भविष्य शिक्षक के हाथ में होता है। आज के छात्र कल के नागरिक होंगे। उनमें से ही कुछ अभियंता, अधिवक्ता, चिकित्सक, राजनीतिज्ञ और न जाने क्या क्या बनेंगे।? और हाँ, उनमे से कुछ शिक्षक भी तो बनेंगे!

अगर शिक्षक ने सही शिक्षा नही दी तो ये मान कर चलिए की समाज का भविष्य अंधकारमय है। माटी जब कच्ची होती है तभी उसे किसी रूप में ढाला जा सकता है। एकबार ये माटी समय ताप में सूख गयी तो कोई कुम्हार उससे कुछ नही बना पायेगा। और फिर वो माटी जो बर्तन, खिलौना या फिर भगवन की मूरत बन सकती थी वो केवेल मिटटी का एक टुकडा रह जाएगा। और फिर हम सभी पढ़ है-

गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़-गढ़ काढे खोट।
अंतर हाथ सहर दै , बाहर मारे चोट॥

निशित ही आज समाज में शिक्षकों की गुणवत्ता में गिरावट आई है, परन्तु ऐसा नही है की सब कुछ समाप्त हो गया है। उत्थान और पतन प्रकृति की नियति है। समय के साथ मनुष्य की विचारधारा बदलती जाती है। जीवन के मायने बदल जाते हैं। ये समाज हम और आप से बनता है। वो हम और आप ही हैं जी कहीं-न-नहीं अलग-अलग नाम, रंग और रूप में होते हैं।

छात्र जीवन मनुष्य के जीवन का वो काल है जब हमारे चरित्र और व्यक्तित्य का निर्माण होता है। हम और आप जैसे होंगे, हमारा समाज वैसा हो होगा। आज हम और आप जो कुछ भी हैं वो हमारे गुरु का निर्माण है। उनकी दी हुयी शिक्षा और ज्ञान आज हमारी पहचान है।

ये हमारा संयुक्त उत्तरदायित्व है की हम जब गुरु के रूप मैं हैं तो उसकी महिमा का ध्यान रखें और जब छात्र हैं तो उसकी मर्यादा का। गोस्वामी तुलसी दास जी ने मानस में लिहा है की-

जाकी होय भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी टिन तैसी।

अर्थात यह की बहूत बार जो हमें दिखाई देता है वह वो नही होता जी वास्तव है, बल्कि वो होता है जी हम देखना चाहते हैं। हम मानते हैं इसलिए पत्थर भी भगवन कर पूजे जाते हैं। नही तो चलते हुए किसी पत्थर के टुकडे पर पैर लगे तो कैसा दर्द होता है?

हम अपने शिक्षक को गुरु का मान देंगे तो अवश्य ही एक दिन हम लाभान्वित होंगे। द्रोणाचार्य का नाम अर्जुन से हुआ, और अर्जुन को अर्जुन द्रोणाचार्य ने बनाया। शिक्षक और छात्र एक दूसरे के पूरक हैं। जब हम ही आरुनी या उद्दालक नही होंगे तो कैसे हम धौम्य जैसे गुरु की अपेक्षा कर सकते हैं?

बदलते सामाजिक परिवेश में सभी कुछ बदल जाते हैं। कल के गुरुकुल आज के विद्यालयों में परिणित हो गए तो वैसे ही कल के गुरु आज के शिक्षक में। पर उनके स्थान और महत्व में में कोई कमी नही आई है और आ भी नही सकती।

शिक्षक और गुरु के बीच तुलना किसी लाभ का विषय है नही क्यों की वर्तमान सामाजिक परिवेश में शिक्षक ही 'गुरु' है।

अंततः हम और आप आज जो कुछ भी हैं वो हमारे गुरु की ही कृपा है।

अतएव गुरु के चरणों में सादर प्रणाम!

तुम्हारी यादें

संजोकर रखी हैं
इस दिल की गहराइंयो में,

तुम्हारे साथ बिताये
लम्हों की
'यादें'

जो देती हैं मेरा साथ
हर पल,

बंधाती हैं मुझे
ढाढस
मैं जब भी उदास होता हूँ,

बढाती हैं मेरा
हौसला
मैं जब भी निराश होता हूँ,

सचमुच!
तुमसे कहीं अधिक

मेरी अपनी हैं-

'तुम्हारी यादें'

चाहत

आखरी साँस तक
अपनी हर साँस में
सजाता रहूँगा
कभी न पूरी होने वाली
'चाहत'
तुम्हे पाने की!

प्यार की नज़्म

तुम्हारी जुदाई की
काली स्याह में
जब-जब
डूबती है
मीठी यादों की
कलम,

तब-तब
मेरी तन्हाई के
कोरे पन्नों पर

प्यार की
इक नई 'नज़्म'
दर्ज होती है!
-----------------------------------------------------
मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, रविवार  २५ नवम्बर २००७ 

प्यार हो गया है

मूँद लेती हो उन्हें
अपनी पलकों से
जो ये नज़रें चार होती हैं,

करती हो
कोशिश छिपाने की
उस तस्वीर को

जो साफ
नजर आती है
तुम्हारी निगाहों में,

पर मैं खूब समझता हूँ,

महसूस लेता हूँ
तुम्हारे दिल की बातों को,

ताड़ लेता हूँ वो बातें
जो तुम चाहकर भी
नहीं लाती
अपनी जुबान पर,

हाँ,

हाँ, मैं जानता हूँ कि
मेरी तरह
तुम्हें भी...

प्यार हो गया है!

...तुम हमारे थे!

मेरे गालों पर चमकते
आंसुओ के ये मोती,

या कहूं,

विरह की आग में दहकते
गरम पानी के दो बूँद,

गवाह हैं इस बात के,
कि कभी,

कि कभी....

तुम 'हमारे' थे!

--------------------------------------
मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, रविवार २५ नवम्बर २००७