सोमवार, 1 जून 2020

सही-ग़लत की बात

जो मानते थे कि में कण कण में भगवान है
उनके लिए फ़र्क़ नहीं था पेड़ है या इंसान है

जो समझते थे उसका ही, चाहे धूप हो या छाँव
वो करते थे नमन रखने से पहले धरती में पाँव

तुम भी मैं और मैं भी तुम तो फ़र्क़ क्या रह जाता है
मानने-मनाने के कि लिए तर्क क्या रह जाता है

कहने को कह देना भी कोई कहने लायक बात है
ऐसे मुँह देखी करके तो कुछ ना आता हाथ है

कहते थे वैसा करते थे जैसे संत कबीर
रहिमन के दोहे बतलाते रखना थोड़ा नीर

नास्तिक नहीं मगर मैं डरता हूँ इंसान से
इनकी पूजा करनी पड़ती पहले उस भगवान से

अपनी सुविधा से जैसे ये अदा बदल लेते हैं
छोड़ें फटे-पुराने कपड़े वैसे ख़ुदा बदल लेते हैं

छोटी मुँह से बात बड़ी है,  करना मुझको माफ़
ऐसा क्यों है बतलाना ये करके दिल को साफ़

बात वही सुनना चाहे जो उसके मन को भाय
सही-ग़लत की बात कहो, तो हमको क्यों गरियाय

जितनी आसानी से हम लिख जाते हैं हर बात
उसको पालन करना क्यों न रहता हमको याद
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सम्बर्ग, सोमवार ०१-जून-२०२०

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