शनिवार, 4 नवंबर 2000

आईना

उसे आईना
पसंद नहीं है,
कि आईना
खोल देता है
उसके सारे भेद

बोल देता है 
सारी बातें बेबाक
जो उसे दिखाई देती हैं 

नकाब 
के पीछे की
असली सूरत
आईने  से
छिपती नहीं है,

दिखावे का रंग रोगन
चाहे कितना भी 
पुता हो,
चहरे की हकीकत
साफ़ नज़र आती है

उसे चिढ़  है
आईने से
कि आईने में
उसकी
असलियत झलकती है,

छलकती है
उसकी बेईमानी,
जिस पर
उसने ईमान का 
चोला चढ़ाया है

आईने की 
ये साफ-गोई 
उसे मंजूर नहीं

और वो
तिलमिला उठता है
   
सहे भी कैसे?

मुखौटे से ढंकी
उसकी कायनात
शीशे में
रेत की ढेरी
नजर आती है,

अब उसने
कर लिया है फैसला,
कि मिटा देगा
वज़ूद,

न रहेगा आईना
और न उसे
ये रोज़ की
जिल्लत होगी,

गुस्से में भर कर
वो तोड़ देता है
आईना,

मगर ये क्या?

कल तक तो
एक ही था
पर आज

उस आईने के
सौ टुकड़े हैं

और हर टुकड़ा
चीख-चीख कर-
उसकी बेबसी
बयान करता है...

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मनीष पाण्डेय “मनु”
जाँजगीर, शनिवार ४ नवम्बर २०००

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