सोमवार, 10 जुलाई 2023

गजल

 गजल

वजन सीने पे रक्खा है वजन काँधे पे डाला है
वजन से तौल के मिलता यहाँ हर इक निवाला है

शिकायत है उसे हमसे हमारा तौर दूजा है
मगर मालिक ने हम सबको बनाया ही निराला है

कहाँ तुम ढूँढ़ते उसको गुफाओं या पहाड़ों में
हर इक के आत्मा में झाँक कर देखो शिवाला है

कभी साखों पे जिसके बांध झूले डोलते थे हम
बहुत अफसोस के वो पेड़ बूढ़ा गिरने वाला है

यहाँ तक ठीक था वो खुद को इक राजा बताये
अहं में चूर वो खुद को नबी बतलाने वाला है

बहुत बेचैन है राही किसी अनजान खतरे से
किनारा आ गया माझी ने अब लंगर निकाला है 

नहीं दरकार है मुझको किसी सजने सँवरने की
मुहौब्बत के दमक से रूप मेरा खिलने वाला है 

भले अंधियार काली रात की गहरी सी छाई हो 
जला जो दीप छोटा सा पसार जाता उजाला है 

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