दीप से जगमग दिवाली, झिलमिलाये घर हमारा। हम बनें वो दीप जिससे, जगमगाए जग ये सारा॥ कर सकें कुछ काम ऐसा, कि खिलें चेहेरे सभी के। ना रहे कोई अकेला, बाँट लें सुख-दुःख सभी से। हो खुशी ऐसी कि जिसमें, खुश रहे संसार सारा। हम बनें वो दीप जिससे... दीप जलता और लड़ता, रात के अंधियार से। हम मिटा दें दुश्मनी, और वैर इस संसार से। यूँ जलाएं प्रेम-दीपक, हो जगत-भर में उजारा। हम बनें वो दीप जिससे... |
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सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
हम बनें वो दीप जिससे...
मंगलवार, 23 सितंबर 2008
फिर बहार आएगी
जाती हुयी बहार
लिए जा रही उसके
अरमान,
पत्ता-पत्ता जैसे
झड़ रही हो उसकी
आस,
बिखर रहे हों
तिनका-तिनका उसके
सपने,
मुरझा रहे हों
उसके मुरादों के
फूल,
सूख रही हो
उसके हिम्मत की
डाल,
पर जाके कोई
कह दो बागबान से-
कि बीत जायेंगे
पतझड़ के ये दिन भी,
और उसके चमन में
एक बार-
फिर बहार आएगी॥
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, मंगलवार २३ सितम्बर २००८
लिए जा रही उसके
अरमान,
पत्ता-पत्ता जैसे
झड़ रही हो उसकी
आस,
बिखर रहे हों
तिनका-तिनका उसके
सपने,
मुरझा रहे हों
उसके मुरादों के
फूल,
सूख रही हो
उसके हिम्मत की
डाल,
पर जाके कोई
कह दो बागबान से-
कि बीत जायेंगे
पतझड़ के ये दिन भी,
और उसके चमन में
एक बार-
फिर बहार आएगी॥
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, मंगलवार २३ सितम्बर २००८
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008
तलाश!
तलाश,
हाँ तलाश,
एक मंजिल की,
जिसने मुझे आगे बढ़ने
को मजबूर किया|
घर से गली
गली से गाँव,
पचपन से जवानी तक,
बढ़ता गया
कदम-दर-कदम|
हर कदम पर
यूँ लगा कि
जिसकी तलाश में
निकल आया इतनी दूर-
सामने खड़ी है
बस-
अगले कदम पर|
देखते देखते
दिन, महीने और सालों
निकल गए
इस तलाश में,
और
मृगमरीचिका की
इस दौड़ में,
खो दिया है खुद को
जाने किस मोड़ पर|
और अब
इक नयी तलाश है,
तलाश-
अपने अस्तित्व,
अपनी पहचान की!
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, गुरुवार २८ फरवरी २००८
हाँ तलाश,
एक मंजिल की,
जिसने मुझे आगे बढ़ने
को मजबूर किया|
घर से गली
गली से गाँव,
पचपन से जवानी तक,
बढ़ता गया
कदम-दर-कदम|
हर कदम पर
यूँ लगा कि
जिसकी तलाश में
निकल आया इतनी दूर-
सामने खड़ी है
बस-
अगले कदम पर|
देखते देखते
दिन, महीने और सालों
निकल गए
इस तलाश में,
और
मृगमरीचिका की
इस दौड़ में,
खो दिया है खुद को
जाने किस मोड़ पर|
और अब
इक नयी तलाश है,
तलाश-
अपने अस्तित्व,
अपनी पहचान की!
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मनीष पाण्डेय "मनु"
शार्लेट, नार्थ कैरोलिना, गुरुवार २८ फरवरी २००८
बुधवार, 16 जनवरी 2008
जिन्दगी की नाव
कभी-कभी
यूँ लगता है कि
बारिश के पानी में
किसी कागज कि कश्ती
के समान है ये जिन्दगी।
।। १ ।।
कागज़ के पन्ने से
बनाते हैं एक नाव,
और छोड़ देते हैं
गली में बहते पानी में।
धार बहती है
और नाव चलती जाती है
फिर बच्चे
उछल-कूद करते हैं
उमंग से।
।। २ ।।
किसी और की
नाव को आगे देख
कोई शरारती बच्चा
पत्थर मार
गिराने लगता है
वो नाव,
एक निशाना लगते ही
उलट जाती है नाव,
और रूक जाती हैं साँसे,
फिर आती हैं बारी-
रोने-चिल्लाने की।
।। ३ ।।
फिर कहीं से खोज कर
एक और कागज़
बनायीं जाती है
एक नयी नाव,
और एक बार फिर
शुरू होती है
उत्साह और उत्सुकता
की बाल-क्रीडा।
।। ४ ।।
आगे किसी छोर पर
जब मुड़ जाती है गली
कहीं किसी ओर,
तब अटक जाती है नाव
एक किनारे पर,
रूक जाती हैं तालियाँ
फिर दूर किनारे पर
खड़े बच्चे
लगाते हैं आवाज में दम
कि शायद
निकल पड़े अटकी नाव ।
।। ५ ।।
भीड़ से एक बच्चा
छपाक करता
उतरता है पानी में,
लाता है नाव को
पानी की धार में,
और एक बार फिर
शुरू हो जाता है
नाव रूपी
जीवन का खेला
मानो जैसे
न रुका था कभी
और न रुकेगा कभी।
।। ६ ।।
यूँ लगता है कि
बारिश के पानी में
किसी कागज कि कश्ती
के समान है ये जिन्दगी।
।। १ ।।
कागज़ के पन्ने से
बनाते हैं एक नाव,
और छोड़ देते हैं
गली में बहते पानी में।
धार बहती है
और नाव चलती जाती है
फिर बच्चे
उछल-कूद करते हैं
उमंग से।
।। २ ।।
किसी और की
नाव को आगे देख
कोई शरारती बच्चा
पत्थर मार
गिराने लगता है
वो नाव,
एक निशाना लगते ही
उलट जाती है नाव,
और रूक जाती हैं साँसे,
फिर आती हैं बारी-
रोने-चिल्लाने की।
।। ३ ।।
फिर कहीं से खोज कर
एक और कागज़
बनायीं जाती है
एक नयी नाव,
और एक बार फिर
शुरू होती है
उत्साह और उत्सुकता
की बाल-क्रीडा।
।। ४ ।।
आगे किसी छोर पर
जब मुड़ जाती है गली
कहीं किसी ओर,
तब अटक जाती है नाव
एक किनारे पर,
रूक जाती हैं तालियाँ
फिर दूर किनारे पर
खड़े बच्चे
लगाते हैं आवाज में दम
कि शायद
निकल पड़े अटकी नाव ।
।। ५ ।।
भीड़ से एक बच्चा
छपाक करता
उतरता है पानी में,
लाता है नाव को
पानी की धार में,
और एक बार फिर
शुरू हो जाता है
नाव रूपी
जीवन का खेला
मानो जैसे
न रुका था कभी
और न रुकेगा कभी।
।। ६ ।।
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