तलाश,
हाँ तलाश,
एक मंजिल की,
जिसने मुझे आगे बढ़ने
को मजबूर किया|
घर से गली
गली से गाँव,
पचपन से जवानी तक,
बढ़ता गया
कदम-दर-कदम|
हर कदम पर
यूँ लगा कि
जिसकी तलाश में
निकल आया इतनी दूर-
सामने खड़ी है
बस-
अगले कदम पर|
अब तो लगता है
मृग-तृष्णा की इस
दौड़ में,
खो दिया है खुद को
कहीं किसी मोड़ पर|
और अब
इक नयी तलाश है,
तलाश-
अपने अस्तित्व,
अपनी पहचान की!
2 टिप्पणियां:
me also think so .very nice poetry
,keep on writing ...
manish ji,
bahut achchhi kavita, badhai..
prof. ashwini kesharwani
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