गुरुवार, 13 अगस्त 2020

अटल कीर्ति

 था दुश्मन बैठा ताक में
वे नोबेल के फ़िराक़ में

बस में बैठ गए जाके
जनता मूरख बन ताके

ध्यान जो भटका लीडर का
वही है मौक़ा गीदड़ का

अंधेरे में करके सीमा पार   
आया कारगिल के द्वार

पीठ में खंजर जो घोंपा
समझ में आया तब धोका

देश की आन बचाने को
दुश्मन को मार भगाने को

जहां पर जम जाती है हाड़
वहाँ पर अपना झंडा गाड़

बढ़ाई भारत माँ की शान
शीश दे वीरों ने बलिदान

लड़े हैं और लड़ेंगे हम
दाँत खट्टे करेंगे हम

दुश्मन भी जाने है ये बात
तभी तो छुपके करता घात

अगर तुम खोए ना होते
माँओं के पूत नहीं खोते

मगर तुम भी भारत के लाल
इसलिए कहता बात सम्हाल

तुम्हारे जैसे नेता आज नहीं
कुर्सी को लड़ते लाज नहीं

कवि हृदय था कोमल मन
करता हूँ तुमको आज नमन

करते थे राजनीति निश्छल
है कीर्ति तुम्हारी सदा अटल

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मनीष पाण्डेय, "मनु"
अलमेर, नीदरलैंड्स, गुरुवार 13 अगस्त 2020

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