पहेली
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हर भेद मन के जानती
सुख-दुख की मेरी साथी
भावना मेरी समझती
एक वो सच्ची सहेली
भाव देकर व्यक्त करती
चित्त की हर इक व्यथा को
या कभी आलम्ब देती
थाम कर मेरी हथेली
जब दुखों का ताप बढ़ता
आस की बरखा बने वो
या मरीची कभी बनकर
छाँट देती है कुहेली
आप ही बनती चले वो
या कभी बिलकुल न बूझे
छोटी बच्ची के जैसे
करती रहती अठखेली
क्या लिख रहा हूँ मैं उसे
या वह मुझे है लिख रही?
ना समझ पाया अभी तक ये कविता है कि पहेली
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मनीष पाण्डेय “मनु”
लक्सेम्बर्ग,सोमवार 13 फरवरी 2022
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