साल भी आखिर
बदला गया है
तो अब आयो
हम बदलें क्या?
आपाधापी
वही पुरानी
रोज-रोज की,
थोड़ी फुर्सत
अपनी खातिर
हम कर लें क्या?
सोफा-कुर्सी
पड़े हूए हैं
उसी जगह पर ,
सुबह-शाम को
जरा सैर पर
हम निकलें क्या?
संगी-साथी
वही पुराने
जरा निखट्टू,
उन्हें बुलायें
या फिर जायें
हम मिलने क्या?
ऊँचा उठने
की चाहत में
फिरते मारे,
थोड़ा रुक कर
इस पल को भी
हम जी लें क्या?
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मनीष पाण्डेय ‘मनु’
नीदरलैंड्स, मंगलवार 3 जनवरी २०२३
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