जब रावण चलता सारा जग हिल जाता था
वो था पंडित-विद्वान और था बलशाली
उसके सन्मुख देवों का जी थर्राता था
रावण ने सोने की लंका बनवाई थी
तीनों लोकों में उसने धाक जमाई थी
नवग्रह सारे उसकी मर्जी से चलते थे
शिव की भक्ति से उसने शक्ति पाई थी
था कुम्भ करण के जैसा कोई बली नहीं
कुछ मेघनाद सन्मुख देवों की चली नहीं
अहिरावण, खर-दूषण के जैसे भाई थे
उस पर भी उसके माथे संकट टली नहीं
थी धू-धू कर के दहकी लंका सोने की
फिर आई बारी भाई-बेटे खोने की
दस शीश कटाकर धरती पर वो पड़ा रहा
बस आती थी आवाजें सब के रोने की
जब उसके हाथों नारी पर अन्याय हुआ
फिर जग में कोई उसको नहीं सहाय हुआ
माटी में मिल गया अहम उसका सारा
वो युगों-युगों तक पाँपी का पर्याय हुआ
————————————
मनीष पाण्डेय ‘मनु’
नीदरलैंड्स, शनिवार 12 अक्टूबर 2024
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें