ओ भौंरे!
रुक जा वहीं
मेरे पास नहीं आना
तुम्हारे छूने से
मेरा बदन खिल उठता है
और फिर
मेरे यौवन की खुशबू
खींच लाती है उन्हें
जो मुझे नोच लेते हैं
और खोंच देते हैं
किसी के जूड़े में
या चढ़ा देते हैं
किसी मूरत पर
भर देते हैं
किसी गमले में
या थमा देते हैं
किसी के हाथों में
डाल देते हैं
किसी की देह पर
या फैंक देते हैं
किन्हीं राहों में
कोई नहीं पूछता
मुझे क्या चाहिए
कोई नहीं समझता
मेरे मन को
और मैं अभागी
अपने ही रूप-रंग
गंध-रस की मारी
खिलने-दमकने-महकने
की जगह
सड़ने-गलने और सूखने
लगती हूँ
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मनीष पाण्डेय ‘मनु’
रविवार ०३ मार्च २०२४, नीदरलैंड
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