कभी उस पर
पड़ जाते हैं ताले
तो कभी
पड़ जाते हैं पत्थर
कभी तो
रहती है किसी के घुटने में
तो कोई
टाँग आता है खूँटी पर
कभी तो
निकल आती है उसकी दुम
तो कभी
हो जाता है अन्धा
कभी तो कोई
बन जाता है उसका दुश्मन
तो कभी
बन जाता है उसका पुतला
या कभी पढ़ जाता है
उस पर पर्दा
तो कभी
होने लगता है यूँ ही खर्चा
कभी तो
बीड़ी के ठूंठ के
बराबर भी नहीं होती
तो कभी
भैंस से करे मुकाबला
कभी कोई
पीछे पढ़ जाता है लट्ठ लेकर
तो फिर
आ जाता है ठिकाने
कभी तो
हो जाता है उसको अजीर्ण
तो कभी
वो लगता है चकराने
कभी वह
खुद चल दे घास चरने
तो कभी
वह दौड़ाने लगता है घोड़े
कभी वह
रह जाता है दंग
तो कभी
कोई होता है उसका पूरा
खैर छोड़ो
अब और कितनी लगाएँ
ये अक्ल भी
बड़ी अजीब चीज है
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मनीष पाण्डेय ‘मनु’
रविवार ०३ मार्च २०२४, नीदरलैंड
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